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________________ अपभ्रंश भारती 19 अक्टूबर 2007-2008 33 अपभ्रंश साहित्य के कवि : स्वयंभू और पुष्पदंत श्री अनिलकुमार सिंह सेंगर ' - प्रारंभ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग उस अर्थ में होता था जो भाषा के स्तर में गिरा होता था। आरंभ में संस्कृत के भर्तृहरि, पतंजलि ने संस्कृत के विकृत शब्द रूप के लिए 'अपभ्रंश' का प्रयोग किया था इसलिए अपभ्रंश का अर्थ किया गया भ्रष्ट, विकृत अथवा अशुद्ध । किन्तु धीरे-धीरे इसका विस्तार भाषा विशेष के लिए होने लगा। संस्कृत के आचार्यों और अपभ्रंश के कवियों ने अपभ्रंश को देशी भाषा कहा है । किन्तु अपभ्रंश कवि स्वयंभू और पुष्पदंत ने अपनी भाषा को 'ग्रामीण भाषा' कहा है। आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक जो भाषा साहित्य के क्षेत्र में छाई हुई थी उसे हम 'अपभ्रंश' के रूप में जानते हैं। केवल दक्षिण को छोड़कर पूरे भारत में इस काल में अपभ्रंश में काव्यों की रचना हुई है। जिन कवियों ने इस भाषा को साहित्यिक गरिमा प्रदान की है उनमें स्वयंभू और पुष्पदंत का नाम प्रमुख है। स्वयंभू की 'रामायण' और पुष्पदंत का 'महापुराण' भारतीय साहित्य के अनुपम ग्रंथ हैं। इनके अलावा जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, सोमप्रभ, जिनप्रभ, जिनदत्त, राजशेखर, शालिभद्र, अब्दुल रहमान, सरह और कण्ह आदि कवि हैं। इन कवियों ने चरित काव्य, गीतिकाव्य, विरह काव्य, रहस्यप्रधान कविता तथा कथा काव्य लिखे हैं । भामह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपभ्रंश का 'साहित्यिक भाषा' के रूप में उल्लेख किया है। इसके बाद दंडी ने पतंजलि और भामह दोनों के मतों का समावेश किया। अपभ्रंश को साहित्य
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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