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________________ अपभ्रंश भारती 19 कवि को एक के स्थान पर दो-दो शब्दों का उपयोग करना पड़ता। समूची भाषा में ही अनेकार्थता अनुस्यूत है। कवि ने इस अनेकार्थता का कौशल से उपयोग किया है - लेहु लिहेप्पिणु जग-विक्खायहो। तुरिउ विसज्जिउ महिहर-रायहाँ। अग्गएँ घित्तु वद्ध लम्पिक्कु व। हरिणक्खरहिँ लीणु णण्डिक्कु व। सुन्दरु पत्तवन्तु वर-साहु व। णाव-वहुलु सरि-गंग-पवाहु व ।30.2। अपह्नुति - अशोक वन में बैठी सीता का रूप विभीषण को कैसा प्रतीत होता है, इसके लिए कवि अपहृति का सहारा लेता है - एह ण सीय वणे ट्ठिय भल्ली। सव्वहुँ हियएँ पइट्ठिय भल्ली। एह ण सीय सोय-संपत्ती। लंकहें वजासणि संपत्ती। एह ण सीय दाढ वर-सीहहाँ। गय-गण्डत्थल-वहल-रसीहहों। एह ण सीय जीह जमरायहाँ। केवल हाणि जसुजम रायहों।57.4। _ विशल्या के सौन्दर्य-वर्णन-प्रसंग में अपहृति की छटा बिखरी है - किं चलण-तलग्गइँ कोमलाइँ। णं णं अहिणव-रत्तुप्पलाइँ। किं ऊरु परोप्परु भिण्ण-तेय। णं णं णव रम्भा-खम्भ एव ।69.21। भाषिक प्रयोग - इस प्रसंग में उन शब्दों का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है जिनका कवि ने अनेक अर्थच्छवियों में अनेकशः प्रयोग किया है। ऐसा ही एक शब्द है - लक्ष्मण। लक्खण कहाँ नहीं, सर्वत्र उसकी उपस्थिति है - चित्र में, सौन्दर्य में, शृंगार में, संगीत में - उज्वेलिज्जइ गिज्जइ लक्खणु। मुरववज्जे वाइज्जइ लक्खणु । सुइ-सिद्धन्त-पुराणे हिँ लक्खणु। ओंकारेण पढिज्जइ लक्खणु। अण्णु वि जं जं किं वि स-लक्खणु। लक्खण णामें वुच्चइ लक्खणु।24.1। __ लोक-चित्रण - पउमचरिउ में लोक-चित्रण को विस्तार मिला है - कहीं शृंग सहित और रहित बछड़ों से युक्त गोठ है, तो कहीं तमाल-ताड़ से आच्छादित वन। स्वयंभू की कवि-प्रतिभा वनों में भी जिनालय साकार कर लेती है - वणं जिणालयं जहा स चन्दणं । जिणिन्द सासणं जहा स-सावयं । महा-रणङ्गणं जहा सवासणं। मइन्द कन्धरं जहा स-केसरं । जिणेस-हाणयं जहा महासरं। कु - तावसे तवं णहा मयासवं । मुणिन्द जीवियं जहा स-मोक्खयं। महा णहङ्गणं जहा स-सोमयं । 24.14।
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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