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________________ अपभ्रंश भारती 19 आकाश में अपने पुष्पक विमान के रुक जाने से क्रुद्ध हो उठता है। इस क्षेत्र में तपरत महामुनि के उग्र तेज के सम्मुख विवश हो वह विमान तो भूमि पर उतार लाता है किन्तु अपनी हजार विद्याओं का स्मरण कर कैलास गिरि को उखाड़ लेता है। इन्द्र के महान ऐरावत की सूंड के समान आकारवाली हथेली से धरती उठा लिये जाने पर भुजंग भग्न, शिलातल खण्डित, शैलशिखर स्खलित हो जाते हैं - कत्थइ भमरोलिउ धावडाउ। उड्डन्ति व क इलासहों जडाउ। कत्थइ वणयर णिग्गय गुहे हिं। णं वमइ महागिरि बहु-मुहे हिँ। उच्छलिउ कहि मि जलु धवल-धारु। णं तुट्टेवि गउ गिरिवरहों हारु।13.5। कहीं गुफाओं से सिंह ऐसे निकलने लगते हैं मानो पर्वत अनेक मुखों से वमन कर रहा हो, कहीं जल-धार यों उछलती है मानो पर्वत-हार टूट गया हो। राम-भरतमिलन के प्रसंग में सैकड़ों युवतियों से घिरी कैकेयी की छवि उत्प्रेक्षा में बँधकर अनूठी व्यंजना में ढल गई है - लक्खिजइ भरहहाँ तणिय माय। णं गय-घड भड भञ्जन्ति आय । णं तिलय-विहूसिय वच्छ राइ। स-पयोहर अम्बर-सोह णाइँ। णं भरहहाँ सम्पय-रिद्धि-विद्धि। णं रामहों गमणहों तणिय सिद्धि । 24.9। अयोध्या काण्ड के दशरथ-कंचुकी-प्रसंग में कंचुकी द्वारा वार्धक्य का वर्णन करने तथा सत्यभूति मुनि द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण हेतु उत्प्रेरित किए जाने से उस दिशा में प्रेरित राजा द्वारा कैकेयी के पत्र भरत को राज्य का अनपालक नियक्तकर. बलदेव को छत्र-सिंहासन और धरती भरत को सौंप देने का आदेश दिए जाने पर, वन-गमन को उद्यत राम का साथ देने के लिए जानकी का अपने भवन से निकलना कवि के शब्दों में मानो हिमालय से गंगा नदी निकलना, छन्द से गायत्री का छूटना, शब्द से विभक्ति निकलना, सत्पुरुष से कीर्ति का निकलना, रम्भा का अपने स्थान से चूकना है (23.6.2-8)। ऐसे कई उत्प्रेक्षा-समृद्ध प्रसंग काव्य में हैं। उपमा-प्रयोग - रावण द्वारा जिनेन्द्र की पूजा-प्रसंग में उसके द्वारा मूर्च्छना क्रम-कम्प और त्रिगाम, षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद आदि सात स्वरों से यक्त वीणा बजाए जाने का प्रसंग स्वयंभ के संगीत विद्या के ज्ञाता होने का संकेत है। उस संगीत के सौंदर्य की अभिव्यक्ति कवि नाना उपमानों से कैसे करते हैं, द्रष्टव्य है - (वह संगीत) कलत्र की भाँति अलंकार-सहित, सुरवनिता की तरह आरोह-अवरोह, स्थायी, संचारी भावों से परिपूर्ण, नववधू के ललाट की तरह तिलक से सुन्दर, आसमान की तरह मन्दतार, सन्नद्ध सेना की तरह लइयताण, धनुष की तरह
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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