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अपभ्रंश भारती 19
करते हुए अवधारणाओं एवं तत्वों का भान मन में रखना उसे सौन्दर्य की परायत्त कोटि में ले जाता है। “स्वयं मनुष्य का सौंदर्य परायत्त की कोटि में आता है।"21 कलासौंदर्य का प्रतिभाजन्य नियम 'पउमचरिउ' में देहीभूत है, इसमें कोई सन्देह नहीं । विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित आदित्य नगर में विद्यामन्दिर राजा की पुत्री श्रीमाला के स्वयंवर के अवसर पर बने सिंहासन ऐसे सुगठित है जैसे काव्य-वचन हों णिय - णिय थाणेहिं णिवद्ध मञ्च । महकवि कव्ववलाव व सु- सच्च 17.21 युद्ध - वर्णन में भी काव्य-उपमान विद्यमान हैं -
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साहणइ मि अवरोप्परु भिडन्ति । णं सुकइ कव्व-वयणइँ घडन्ति ।. भञ्जन्ति खम्भ विहडन्ति मञ्च । दुक्कवि-व - कव्वालाव व कु-सञ्च 17.51
व्याकरण का उपमान-रूप में प्रयोग निर्घात और मालि के बीच हुए युद्ध में दोनों वीर तरुवरों, पाषाणों, गिरिवरों, भीषण सर्प, गरुड़, कुम्भी और सिंह आदि विद्यारूपों से, भयंकर तीरों से युद्ध करते हुए महारथ, छत्र और ध्वजों को ऐसे छिन्न-भिन्न करते हैं जिस प्रकार वैयाकरण व्याकरण के पदों को
छिन्दन्ति महारह-छत्त-धयइँ । वइयागरण व वायरण पयइँ । 7.14.4। राम-भरत मिलन-प्रसंग का आयोजन लतागृह करते हुए स्वयंभू पुनः व्याकरणिक उपमान का प्रयोग करते हैं -
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सु-पय सु-सन्धि सु-णाम वयण - विहत्ति - विहूसिय । कह वायरणहों जेम केक्वय एन्ति पदीसिय । 24.9 । राम-भरत मिलन के इस अवसर पर कैकेयी अपने आगमन, उपस्थिति से ऐसे बाँधती है मानो सु-सन्धि, सुन्दर भाषा-विभक्ति से युद्ध पद-बन्धन हुआ हो ।
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कामपरक उपमान प्रयोग माया सुग्रीव एवं राम के युद्ध-प्रसंग में कवि ने रणकौशल की प्रस्तुति मानव की दो भिन्न प्रवृत्तियों को समीकृत कर काम चेष्टाओं के प्रयोग द्वारा की है
उपमान-रूप
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तिह पर - तत्ताइँ ।
अब्भिट्टइँ वेण्णि मि साहणाइँ । जिह मिहुणइँ तिह हरिसिय-मणाइँ । जिह मिहुणइँ तिह अणुरत्ताइँ । जिह मिहुणइँ जिह मिहुइँ तिह कलयल - करइँ । जिह मिहुणइँ तिह उत्प्रेक्षा - प्रयोग कैलास प्रसंग पउमचरिउ में भिन्न रूप में आया है। नित्यालोक नगर की विद्याधर कुमारी रत्नावली से विवाह कर लौटता हुआ रावण
मेल्लिय - सरइँ । 43.14।