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________________ अपभ्रंश भारती 19 जहाँ तक अपभ्रंश भाषा का प्रश्न है अपभ्रंश भाषा-साहित्य के एक साधारण विद्यार्थी की हैसियत से मेरा यह मानना है कि इतिहास या आलोचना दृष्टि के मामले में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपभ्रंश के लिए जो कुछ लिखा था हम अभी उसी के इर्द-गिर्द परिक्रमा कर रहे हैं। आचार्य शिवनाथजी ने प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक से अपने आवास पर हो रही बातचीत में कहा था कि सामग्री को सही परिप्रेक्ष्य में देखने व उपभोग करने की जो क्षमता शुक्लजी में थी वह बाद के आचार्यों में कम दिखायी देती है। शुक्लजी ने लोकभाषा, देशभाषा आदि को अपभ्रंश के परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से देखा था लगभग वही नजरिया बाद के लोगों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रहा। रामविलासजी का मानना है कि अपभ्रंश की व्याख्या करते समय शुक्लजी ने यथेष्ठ सावधानी बरती है। अब सीधे अगर शुक्लजी की पंक्तियाँ देखी जाएँ तो - “अपभ्रंश की यह परम्परा विक्रम की 15वीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया - पुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का।......विद्यापति ने अपभ्रंश से भिन्न, प्रचलित बोलचाल की भाषा को 'देशी भाषा' कहा है।" निश्चित तौर पर अपभ्रंश के विभिन्न रूप देखने को मिलेंगे। किसी भी साहित्यिक भाषा या लोकभाषा या देशी भाषा को हम स्थिर या रूढ़ स्थिति में नहीं देखना चाहते। हजारीप्रसादजी का मानना है कि - "वस्तुतः छन्द, काव्यरूप, काव्यगत रूढ़ियों और वक्तव्य वस्तु की दृष्टि से दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का लोकभाषा का साहित्य परिनिष्ठित अपभ्रंश में प्राप्त साहित्य का ही बढ़ाव है, यद्यपि उसकी भाषा उक्त अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न है। इसलिए दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के उपलब्ध लोकभाषा साहित्य को अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न भाषा का साहित्य कहा जा सकता है।”7 कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा और साहित्य के विवेचन में पूर्ववर्ती और परवर्ती आचार्यों ने कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ा। हर साहित्य का अपना समय उसमें प्रतिध्वनित होता है। अपभ्रंश के साथ भी ऐसा ही है। गुलेरीजी से लेकर रामसिंह तोमर या फिर शम्भूनाथ पाण्डेय तक ने अपभ्रंश की जिन साहित्यिक विशेषताओं को देखा है वह कम नहीं हैं। साहित्यकार या सर्जक अपनी नम्रता में ही अपनी विशिष्टता की पहचान करा देता है। करकंडचरिउ में कनकामर ने लिखा है - वायरणु ण जाणमि जइ वि छंदु। सुअ जलहि तरेव्वइँ जइ वि मंदु ।। जइ कह वण परसइ ललिय वाणी। जइ वुहयण लोयहो तणिय काणि॥ जइ कवियणे सेवहु मइँ ण कीय। जइ जडयण संगइ मलिण कीय॥
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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