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________________ अपभ्रंश भारती 19 यह कितनी सहज-सरल स्वाभाविक स्वीकारोक्ति है, कनकामर कहते हैं - न तो मैं व्याकरण जानता हूँ न ही छन्द का ज्ञान रखता हूँ। मैं मन्दमति हूँ। शास्त्रों के समुद्र को पार करने की मेरी शक्ति भी नहीं है। किसी भी तरह से लालित्य पूर्ण वाणी की अभिव्यक्ति भी मेरे द्वारा नहीं हो पाती जिसके चलते बुद्धिमान लोगों के सामने जाने में मुझे लज्जा होती है। मैंने कभी श्रेष्ठ कवियों की संगति भी नहीं प्राप्त की बल्कि जड़मति लोगों की संगति से मेरी कीर्ति हीन बनी हुई है। यह नम्रता अपभ्रंश के एक श्रेष्ठ साधक कवि की है। अपनी सारी सीमाओं के बाद भी साहित्य काल की सीमा का अतिक्रमण उसी तरह से करता है जैसे मनुष्य अपनी सीमित शक्ति के बाद भी जीवन की निरन्तरता के लिए बराबर गतिशील रहता है। भाषा और साहित्य दोनों की समृद्धि के साथ इतिहास की एक बड़ी समय-सीमा को विभिन्न रूपों में प्रभावित करनेवाला अपभ्रंश साहित्य जीवन का साहित्य है इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं है। 1. हिन्दी साहित्य का अतीत, पृ. 32, लेखक - आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र, प्र. - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-2। 2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ. 22, लेखक - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्र. - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्। 3. हिन्दी साहित्य का अतीत, पुरोवचन, पृ. 4, लेखक - आचार्य . विश्वनाथप्रसाद मिश्र। हिन्दी भाषा का विकास, पृ. 102, लेखक - गोपालराय। 5. वही. पृ. 101। 6. हिन्दी भाषा और लिपि का विकास एवं स्वरूप, पृ. 31, लेखक - डॉ. भवानीदत्त उत्प्रेती। 7. हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, पृ. 39, लेखक - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन । 18, नीचू बँगला (हिन्दी भवन) विश्वनाथ शांति निकेतन-731235 मोबा. 9434142416, 9832976060
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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