SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती 19 “11वीं शताब्दी में नेमि साधु ने अपभ्रंश के तीन भेद बताए हैं - उपनागर, आभीर और ग्राम्य। वैयाकरणों ने इन्हीं तीन भेदों को, नागर, उपनागर और ब्राचड नाम दिया। 17वीं शताब्दी में मार्कण्डेय ने अपभ्रंश के 27 भेद बताए। इस प्रकार से विभिन्न भेदों में विभाजित करना स्थानीय प्रभावों के कारण संभव हुआ। वस्तुतः अपभ्रंश साहित्य में एक ही परिनिष्ठित अपभ्रंश का स्वरूप मिलता है। आभीर लोग राजस्थानगुजरात आदि प्रदेशों में फैले हुए थे और शौरसेनी प्राकृत के मेल से ग्रामीण बोली के रूप में इन्हीं प्रदेशों में अपभ्रंश का विकास हुआ। राजपूत शासन के विस्तार के साथसाथ अपभ्रंश भाषा का भी विस्तार हुआ और वह राजभाषा तथा देशभाषा के पद पर आ गई।' ___ मुझे यह लगता है भाषा भावएक्य की वाहिका है भावभेद की नहीं, अतः देशभाषा ग्राम्यभाषा आदि को स्वीकार करते हुए भी इतिहास पर नहीं, अपभ्रंश के साहित्य पर पाठक की दृष्टि रहती है इसीलिए एक तरफ वह विद्यापति की इन पंक्तियों में डूबता है - सक्कय बानी बहुअन भावइ। पाउअ रस को मम्म न पावइ । देसिल बअना सब जन मिट्ठा तें तैसन जंपो अवहट्ठा ।। तो दूसरी ओर उसे स्वयंभू की इन पंक्तियों में भी कम रस नहीं मिलता - इंदेण समप्पिउ वायरणु । रसु भरहें वासे वित्थरणु । पिंगलेण छंद पत्थारु । भंमहँ दंडिणिहि अलंकारु। बाणेण समप्पिउ घणघणउ। तं अक्खर डम्बर घणघणउ । हरिसेण णिपाणिउ णित्तणउ। अवरेहिं मि कइ हिं कइत्तणउ॥ (हरिवंश पुराण) कवि इन्द्र से व्याकरण, भरतमुनि से रस, महर्षि व्यास से विस्तार का धैर्य, पिंगलाचार्य से छन्द-कुशलता, भामह और दण्डी से अलंकार पाने की बात करता है। इतना ही नहीं अक्षरों का समायोजन वह बाण से, हर्ष से निपुणता तथा अनेक कवियों से कवित्व की शक्ति प्राप्त करने की बात करता है। ऐसे में यह कहा जाय कि कवि को अपनी पूर्व परंपरा की समृद्धि की जानकारी पूरी तरह से है और आत्मविश्वास के साथ कुछ नया देना चाहता है -
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy