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________________ अपभ्रंश भारती 19 107 दान नहीं देता वह स्वयं पीड़ित होता है और अपने परिवार को भी खंडित करता है (62)। जो दान देता है वह धर्मशील कहलाता है (64)। दान देनेवाले को धर्म भी होता है और यश भी मिलता है (73)। जो दान देता है उसका भाग्य भी साथ देता है (38) (63)। देख, जितना दिया हुआ है उतना ही मिलता है (68), इसलिए जो मिला है उसी में संतोष कर (23)। दुःखी मत रह, छटपटा मत (58)। कवि, जो दानरहित है उसकी निन्दा तो करता ही है, जो याचक हैं उनकी भी निन्दा करता है (36)। कवि समझाते हुए कहते हैं - हे जिय! ज्ञान-प्राप्ति के लिए मन का संवरण कर (42)। जिसका मन मर जाता है वह अमर हो जाता है (59)। जो मन को मार लेता है वह मोक्ष पाता है और जो जीवों को मारता है वह नरक को जाता है (72)। सर्वत्र भावों की प्रधानता है (56)। व्यसनों की, पर-स्त्री की, परधन की आशा क्यों करता है (66)! धनयौवन का अभिमान मत कर (49)। देख, संसार में धन-दौलत, बंधु-बाँधव-परिवारजन सबका हरण हो सकता है किन्तु किये हुए पुण्य का/ सुकृत का हरण नहीं हो सकता (20)। इसलिए हे मनुष्य! सुकृत कर! जो धर्म करता है उसके संसार का उन्मूलन हो जाता है (66)। इस प्रकार प्रत्येक दोहे में कोई न कोई मूल्यपरक, आध्यात्मिक संदेश निहित है। ये दोहे - 'देखन में छोटे लगें पर भाव भरे गंभीर' हैं। क्रमांक 11, 13, 18, 75, 76 के अतिरिक्त शेष सभी दोहों में कवि ने अपना नाम दिया है - 'सुप्पउ भणई' 'सुप्पय' या 'सुप्पा'। यह कवि की विशेषता है। इससे ही कृतिकार कवि की पहचान गुम होने से बच गई, अन्यथा साहित्य के विशाल सागर में कवि का नाम और पहचान दोनों ही ज्ञात न हो पाते। विदेशियों के आक्रमणों के दौर में संस्कृति एवं साहित्य की सुरक्षा के लिए किये गये प्रयासों में विशाल शास्त्र भण्डार छिपा दिये गये, दबा दिये गये। उनमें निहित साहित्यिक निधि वर्षों तक प्रकाश में न आ सकी। अपभ्रंश भाषा का साहित्य भी इसी विडम्बना का शिकार हुआ। भारत में एक हजार वर्ष तक साहित्यिक भाषा का सम्मान पानेवाली अपभ्रंश भाषा काल के प्रवाह में लुप्त रही। उसके विपुल एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य से वर्षों तक लोग अनभिज्ञ रहे। जब शास्त्र-भण्डारों में संगृहीत व सुरक्षित वह साहित्य प्रकाश में आने लगा तो लोग अपभ्रंश भाषा से अनजान थे, वे इसके ग्रन्थों को प्राकृत भाषा के ग्रन्थ समझते रहे। ऐसी गुमनाम, पुरानी भाषा को समझना अत्यन्त कठिन लगता था। जयपुर में डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी (भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, दर्शन
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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