________________
अपभ्रंश भारती 17-18
67.
इन्द्र, नागराज और चक्रवर्ती भी जीवों का शरण नहीं होते हैं। उत्तम मुनि (अपने को) अशरण जानकर आत्मा (द्वारा) आत्मा को समझते हैं।
68.
जीव अकेला पैदा होता है, अकेला ही मरता है। अकेला यहाँ सुख भोगता है, अकेला ही नरक के लिए जाता है तथा अकेला निर्वाण के लिए है।
69.
यदि अकेला ही उत्पत्ति चाहो तो परभाव को छोड़! ज्ञानमय आत्मा का ध्यान कर, शीघ्र मोक्ष-सुख को प्राप्त कर।
70.
जो पाप ही है, वह पाप है, कहो! सब ही कोई (उसे) (पाप) मानते हैं। जो पुण्य को भी पाप ही कहते हैं। (जो) कोइ (ऐसा) कहते है, वह बुद्धिमान है।
71.
हे बुद्धिमान! जैसे लोहनिर्मित बेड़िया है वैसे स्वर्णमयी (बेड़ियों) को जान! जो सुख-दुःख (के भावों) को छोड़ते हैं, वे ही निश्चय रूप से ज्ञानी होते हैं।
हे जीव! जब मन निर्ग्रन्थ है तब तू मुणि है। हे जीव! जब तू मुनि है, तो (मुनि) मोक्ष मार्ग को प्राप्त करते हैं।
73.
जैसे वड़ के मध्य से बीज स्पष्टतः (प्रकट होता) है। बीज से ही बड़ (प्रकट हुआ) जान। तैसे ही देह से देव मानो जो तीन लोक का प्रधान है।
74.
जो जिनेन्द्र है वह मैं हूँ। वह मैं ही हैं। ऐसी शंकारहित भावना कर। हे योगी! मोक्ष का कारण (यही) है। अन्य (कोई) भी तंत्र-मंत्र नहीं हैं।
___ वह (आत्मा) दो, तीन, चार, पाँच, नव, सात, छह, पाँच, चार गुण सहित
है, जानो। यह उसके लक्षण हैं।
76.
जो दो (राग-द्वेष) को छोड़कर, दो गुण (ज्ञान-दर्शन) सहित आत्मा में निवास करता है (वह) शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है। ऐसा जिनेन्द्र स्वामी कहते हैं।
77.
तीन (राग-द्वेष-मोह) से रहित, तीन गुण (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) से सहित आत्मा में जो बसता है वह ही शाश्वत सुख का भाजन है। जिनेन्द्र ऐसा कहते हैं।