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अपभ्रंश भारती 17-18
लद्धए माणुसत्ते सुकुलक्कमु संपुण्णिंदियत्तु सुइसंगमु। सव्वु वि दुल्लहु लहेवि वियक्खणु धम्मु न पावइ जइ दसलक्खणु। तो निरत्थु जम्मु विं संपत्तउ वयणु व विमलु चक्खुपरिचत्तउ। धम्मु वि लहेवि जो न तं पालइ छारनिमित्तु घुसिणु सो जलाइ॥11.13॥
फिर वे मुनि कर्मों को काटते हुए बोधिरूपी महान् गुणकारी रत्न बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का चिन्तन करते हैं- रेत के सागर में पड़ी हुई हीरे की कणी को कौन प्राप्त कर सकता है? इसी प्रकार नाना योनियों से संकीर्ण तथा स्थावर-जंगम जीवों से भरे हुए इस संसार में विकलोन्द्रिय (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय-वाले) जीवों का बाहुल्य है। पंचेन्द्रिय शरीर बड़ी कठिनाई से मिलता है। वहाँ भी सीगोंवाले तथा अन्य पशु-पक्षी ही अधिक संख्या में है। मनुष्य-जन्म बड़ी कठिनाई से मिलता है। मनुष्यत्व मिलने पर भी उच्च कुल की प्राप्ति, इन्द्रियों की पूर्णता तथा शास्त्रों का समागम मिलना दुर्लभ है। इन सब दुर्लभ वस्तुओं को पाकर भी यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति दशलक्षण धर्म को नहीं प्राप्त कर सके तो उसका जन्म उसी प्रकार निरर्थक हो जाता है जैसे चक्षुरहित सुन्दर मुख। धर्म को पाकर भी जो उसका पालन नहीं करता, वह मानो राख के लिए बहुमूल्य केशर को जलाता है अर्थात् सांसारिक क्षणिक सुख के लिए दुर्लभ मनुष्य-जन्म को गँवाता है। धर्म भावना
पुणु वि पुणु वि परिभावइ मुणिवरु दसविहधम्महँ आवज्जणपरु। कयदोसेसु रोसु वंचिज्जइ उत्तमखमइ धम्मु मंडिज्जइ। जाइमयाइमाणपरिहरणउ
मद्दववित्ति धम्मआहरणउ। कायवायमण जोउ अवक्कउ अज्जवभावे धम्मु तहिँ थक्कउ। पत्तपरिग्गहलोहु चयंतहो सउचायारपरहो धम्मु वि तहो। सप्पुरिसेसु साहुसंभासणु
सच्चु वि धम्म अहम्मविणासणु। दुद्दमइंदियागिद्धिनिरोहणु संजमु नामु धम्मु मणरोहणु। कम्मक्खयनिमित्तु निरवेक्खउ तउ चिज्जंतु करइ पावक्खउ। सीलविहूसियाण जं दिज्जइ जोगु दाणु तं चाउ भणिज्जइ। एहु महारउ इय मइ मुच्चइ परिवज्जियकिंचित्तु पवुच्चइ। नवविह-बंभचेरु जो रक्खइ चडेवि धम्मि सिववहुय कडक्खड॥11.14।। दशविध धर्म के अभ्यास में तत्पर वह श्रेष्ठ यति पुनः पुनः चिन्तन करने लगा