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अपभ्रंश भारती 17-18
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जोयणलक्खु मेरु मज्झंकिउ जंबूदीउ मज्झें दीवहँ ठिउ। चउदिसु वेढिउ वलयायारें लवणण्णवेण विउणवित्थारें। हिमवंताइँ तत्थ पव्वय छह गंगापमुहउ नइउ चउद्दह। भरहेरावएसु उवसप्पिणि
विहि मि पवत्तइ तह अवसप्पिणि। इय दीवाउ खेत्तकमु विउणउ धाइयखंडे पुक्खरद्धय तउ। घत्ता- अड्ढाइयदीवइँ धरेवि मणुसोत्तरगिरि जाम नरालउ।
पुक्खरद्ध धुरि परइ पुणु तिरिय-देव-संचारु विसालउ॥11.11।। घत्ता- एक्करज्जु लोयग्गु थिउ विवरियछत्तायारु सुहावइ।
दसण-नाण-चरित्ततणु अमलकलंकु सिद्ध तं पावइ॥11.12॥
अब वे महामुनि लोक भावना का चिन्तन करते हैं। यह त्रिभुवन शुद्ध आकाश में परिस्थित है। तीनों लोक वातवलय के द्वारा धारण किया हुआ है। अधोलोक सात राजू प्रमाण है जिसमें अत्यन्त दुःखदायक सात पृथ्वियाँ हैं और जहाँ सागरों-पर्यन्त दुःख सहन करते हुए जीव को रहना पड़ता है।
मध्यमलोक एक राजू प्रमाण है और वह द्वीप तथा समुद्रों से शोभायमान है। मध्य में एक लाख योजन विस्तारवाला जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप में हिमवतादि छः पर्वत हैं; गंगा, सिन्धु आदि चौदह नदियाँ हैं; भरत, ऐरावत आदि सात क्षेत्र हैं; भरत, ऐरावत में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का परिवर्तन होता रहता है। लवणोदधि के चारों ओर वलयाकार धातकी खण्ड और पुष्करार्द्ध हैं। इन ढाई द्वीप में मनुष्यों का निवास है। इसके आगे तिर्यंच और देवों का विशाल संचार क्षेत्र है। मध्यलोक से ऊपर पाँच राजूप्रमाण, मुरज के आकार से सोलह स्वर्ग, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पाँच अनुत्तर विमान हैं। सबसे ऊपर सर्वार्थसिद्धि है। इनमें देवों का निवास है। सबसे ऊपर एक राजूप्रमाण सिद्ध लोक है। यह खुले हुए छाते के आकार का है। दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी शरीर को धारण करनेवाला कर्ममलरहित निष्कलंक सिद्ध पुरुष उसे प्राप्त कर सकता है। बोधिदुर्लभ भावना
पुणु वि मुणिंदु कम्मु निक्कंतइ बोहिमहागुणु रयणु वि चिंतइ। बालुयसायरम्मि ठिय भावइ हीरयकणिय कवणु किर पावइ। इय संसारि जोणिसंकिण्णइ थावरजंगमजीवपवण्णइ। वियलिंदियबाहुल्लु वियंभइ पंचेंदियतणु दुक्खहिँ लब्भइ। तहिँ मि सिंगि-पसु-पक्खि बहुत्तणु कह व पमाए लहए नरत्तणु।