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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 निर्जरा भावना दूरि निरत्थ मरण-जम्मण-जर पुणु अवलोयइ भावण निज्जर। उइउ सुहासुहफलु भुंजिज्जइ आसियकम्महों निज्जर किज्जइ। मोक्ख-बंधभेएहिँ नियाणिय कुसलाकुसलमूल परियाणिय। नरसमुब्भव-नारयजीवहँ सेसहँ मिच्छादसणकीवहँ। दुह-सुह/जणएहो निज्जर अकुसल-अदृ-रउद्दनिरंतर। जं निज्जरइ दुक्खु मुणि अंगें कायकिलेस-परीसहसंगें। अवरु वि जो सम्मत्तालोयणु उवयसहाव-सुहासुहभोयणु। रायरोसरहियउ नीसल्लउ सुक्खु दुक्खु निज्जरियउ भल्लउ। घत्ता- पक्कउ फलु तलें निवडियउ विंटें पुणु वि जेम-नउ लग्गइ। कम्मु वि निज्जरसाडियउ पुणु वि न उवइ नाणे जो जग्गइ॥11.9॥ फिर वे मुनि जन्म-जरा और मरण को निरस्त करनेवाली निर्जरा भावना का चिन्तन करते हैं- उदय में आये हुए कर्मों के शुभ-अशुभ फल को भोगना चाहिये और स्थित (उदय में नहीं आये हुए) कर्मों की निर्जरा करनी चाहिये। बन्ध और मोक्ष की विशेषता के भेद से निर्जरा दो प्रकार की होती है- कुशल मूल और अकुशल मूल। नारकी जीवों को नरक का दुःख भोगने और तथा शेष अपुरुषार्थी लोगों को सुख-दुःख भोगने से निरन्तर आर्त-रौद्र ध्यानपूर्वक जो कर्मों की निर्जरा होती है वह अकुशल मूल है तथा जो परीषहों को सहन करते हुए कायक्लेश द्वारा कर्मों की निर्जरा की जाती है, समताभाव से कर्मों के उदयानुसार शुभाशुभ को भोगना एवं राग-द्वेषरहित निःशल्यभाव से जो सुख-दुःख की निर्जरा है, वह कुशल मूल है। जिस प्रकार पका हुआ फल वृक्ष से नीचे गिरकर पुनः डण्ठल में नहीं लगता, उसी प्रकार कुशल मूल निर्जरा द्वारा जो कर्म दूर कर दिये जाते हैं वे पुनः उस व्यक्ति के पास नहीं फटकते, जो ज्ञानाराधना में जागरूक रहता है। लोक भावना पुणु लोयाणुरूव थावइ मणु सुद्धायासें परिट्ठिउ तिहुयणु। चउदहरज्जुमाणे परियरियउ तिहिँ मि समीरण वलयहिँ धरियउ। रज्जुव सत्त लोउ हेट्ठिल्लउ पुढविउ सत्त जि दुहहिँ गरिल्लउ। पढमहि तीसलक्खनरयायरु रयणप्पहहे आउ जहिँ सायरु॥11.10॥ मज्झिमलोउ रज्जुपरिखंडिउ दीवसमुद्दहिँ सयलु वि मंडिउ।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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