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अपभ्रंश भारती 17-18
जाता है। कहाँ तक कहें! अनुमान से ही जान लीजिये। स्वयं अपने से आप ही उत्पन्न हो जाता है। देव मनुष्य और मनुष्य देव हो जाता है। इस प्रकार संसार की गति को जानकर जिसने दर्शन और ज्ञान की आराधना नहीं की वह मिथ्यात्व से छला जाकर काम, क्रोध व भय के वशीभूत होकर दुःखी जीवन बिताता है। एकत्व भावना
जीवहाँ नत्थि को वि साहिज्जउ कम्मफलइँ जो भंजइ विज्जउ। एक्कु जि पावइ निउइ महल्लउ निवडइ घोरनरएँ एक्कल्लउ। एक्कु जि खरघम्मेण विलिज्जइ एक्कु वि वइतरणिहि वोलिज्जइ। एक्कु जि ताडिज्जइ असिवत्तहिँ एक्कु जि फाडिज्जइ करवत्तहिं। एक्कु जि जलें जलयरु वणे वणयरु एक्कु जि महिहरकंदरें अजयरु। एक्कु जि मेच्छु चंडपरिणामउ एक्कु जि संदु विसमबहुकामउ। एक्कल्लो वि महिल एक्कु जि नरु एक्कु जि महिवइ एक्कु जि सुरवरु।
एक्कु जि जोएं गलियवियप्पउ जायइ जीउ सुद्धपरमप्पउ। घत्ता- एक्कु जि भुंजइ कम्मफलु जीवहाँ बीयउ कवणु कलिज्जइ।
सत्तु मित्तु कहिँ संभवइ रायदोसु कसु उप्परि किज्जइ॥11.4॥
पुनः वे एकत्व भावना का चिन्तन करते हैं- जीव का ऐसा कोई भी सहायक नहीं है जो कर्म के फलों को काट दे। वह अकेला ही महान् मोक्ष को पाता है और अकेला ही घोर नरक में गिरता है। वह अकेला ही तीक्ष्ण ताप से गलाया जाता है और अकेला ही वैतरणों में डूबता है। अकेला ही असि से फाड़ा जाता है और अकेला ही करौतो से चीरा जाता है। अकेला ही जल में जलधर तथा वन में वनचर होता है। अकेला ही पर्वत की गुफाओं में अजगर होता है। अकेला ही चण्ड परिणामोंवाला म्लेच्छ होता है और अकेला ही तीव्र काम-वासनावाला नपुंसक होता है। अकेला ही स्त्री और अकेला ही पुरुष होता है। अकेला ही राजा और अकेला ही देव होता है। अकेला ही योग के द्वारा सम्पूर्ण विकल्पों को त्यागकर शुद्ध परमात्मा होता है। जीव अकेला ही कर्म-फलों को भोगता है, दूसरे किसको जीव का बन्धु बान्धव या शत्रु-मित्र कहा जाये और किसके ऊपर राग-द्वेष किया जाय! अन्यत्व भावना
अण्णत्ताणुवेक्ख भावइ पुणु अण्णु सरीरु अण्णु जीवहाँ गुणु। बज्झइ अण्णकम्मपरिणामें जणे कोकिज्जइ अण्णें नामें।