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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 19 गोत्तु निबंधड़ अण्णहिं खोणिहिँ उप्पज्जइ अण्णण्णहिँ जोणिहिँ। अण्णेण जि पियरेण जणिज्जइ अण्णइ मायइ उयरें धरिज्जइ। अण्णु को वि एक्कोयरु भायरु अण्णु मित्तु घणनेहकयायरु। अण्णु कलत्तु मिलइ परिणंतहँ अण्णु जि पुत्तु होइ कामंतहँ। अण्णु होइ धणलोहे किंकरु अण्णु जि पिसुणु होइ असुहंकरु। अण्णु अणाइ-अणंतु सचेयणु सावहि अण्णु पवड्डियवेयणु। घत्ता- अण्णण्णाइँ कलेवर' लइयइँ मुक्कइँ भवसंघारणे। अण्णु जि निरवहिजीउगुणु कवणु ममत्तिभाउ तणुकारणे॥11.5॥ इसके बाद वे महामुनि अन्यत्व भावना का चिन्तन करते हैं- जीव का गुण अन्य है और शरीर अन्य है। परिणामों के कारण वह अपने से भिन्न कर्म-प्रकृतियों से बँधता है, लोगों में वह किसी अन्य नाम से पुकारा जाता है, भिन्न-भिन्न पृथ्वियों में भिन्न-भिन्न गोत्र बाँधता है और भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता है। उत्पन्न करनेवाला पिता भी अन्य होता है और उदर में धारण करनेवाली माता भी अन्य होती है, सहोदर भाई भी कोई अन्य होता है और घना स्नेह करनेवाला मित्र भी अन्य ही होता है। परिणय करते हुए अन्य स्त्री मिलती है और कामभोग से अन्य ही पुत्र उत्पन्न होता है। धन के लोभ से अन्य ही दास होता है और अकल्याण करनेवाला दुर्जन भी अन्य ही होता है। जीव का अनादि अनन्त सचेतन रूप अन्य ही होता है तथा कर्मों के कारण सादि-सान्त स्वरूप अन्य ही होता है। बार-बार जन्म लेने में भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये और छोडे। जीव का निरवधि ज्ञान गण इन सबसे भिन्न है। अत: इस शरीर से क्या ममत्व करना? अशुचि भावना जंगमेण संचरइ अजंगमु असुइ सरीरे न काइँ मि चंगमु। अड्डवियड्डहड्डसंघडियउ सिरहिं निबद्धउ चम्में मढियउ। रुहिर-मास-वस-पूयविटलटलु मुत्तनिहाणु पुरीसहों पोट्टलु। थवियउ तो किमि-कीडु पयट्टइ दड्ढु मसाणे छारु पल्लट्टइ। मुहबिंबेण जेण ससि तोलहि परिणइ तासु कवोलें निहालहि। लोयणेसु कहिँ गयउ कडक्खणु कहिँ दंतहिँ दरहसिउ वियक्खणु। विप्फूरियाहरत्तु कहिँ वदृइ कोमलबोल्लु काइँ न पयट्टइ। धूयविलेवणु बाहिरि थक्कड़ असुइ गंधु को फेडिवि सक्कइ।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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