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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 ___17 अब महामुनि अशरण भावना का चिन्तन करते हुए विचारते हैं कि- मृत्यु के समय जब यमदूत जीव को ले जाते हैं उस समय जीव की रक्षा कौन कर सकता है? चाहे बड़े-बड़े संग्राम-धुरन्धर, सुभट पुरुष, गरुड़, फणीन्द्र, देव, बलिष्ठ दानव, सूर्य, चन्द्र, शुक्र, शक्र, शत्रु को आक्रन्दन करानेवाले हरि, हर, ब्रह्मा, पन्दह क्षेत्रों में कल्याणकारी कुलकर, चक्रवर्ती या तीर्थंकर ही क्यों न उसे धारण कर लें, चाहे वह सुदृढ़ वज्रपंजर में प्रवेश कर जाय या पर्वत, गुफा, सागर, नदी अथवा निर्झर में प्रवेश कर जाये तो भी जिस प्रकार सिंह के द्वारा हरिण मार डाला जाता है, उसी प्रकार जीव भी काल का ग्रास बन जाता है। जीव जितने समय के लिए आयु कर्म का बन्ध करता है उतने समय तक ही उसे भोगते हुए जीता है, उससे अधिक एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। तीनों लोक में कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता है। इस दुस्तर भवसागर के जल में डूबते हुए को कौन सहारा देता है? एकमात्र जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट दश प्रकार का धर्म ही उसे भवसागर से पार कर सकता है। संसार भावना संसाराणुवेक्ख भाविज्जइ कम्मवसेण जीउ पाविज्जइ। जोणि-कुलाउ-जोय-सय-संकडे चउगइभमणे विवज्जियकंकडें। जम्मंतर लेंतु मेल्लंतउ कवणु न कवणु गोत्तु संपत्तउ। बप्पु जि पुत्तु पुत्तु जायउ पिउ मित्तु जि सत्तु सत्तु बंधइ थिउ। माय जि महिल महेली मायरि बहिणि वि धीय धीय वि सहोयरि। सामिउ दासु होवि उप्पज्जइ दासु वि सामिसालु संपज्जइ। केत्तिउ कहमि मुणहु अणुमाणे जम्मइ अप्पाणउ अप्पाणें। • नारउ तिरिउ तिरिउ पुणु नारउ देउ वि पुरिसु नरु वि वंदारउ। घत्ता- इय जाणेवि संसारगइ दंसण-नाणु जेण नाराहिउ। अच्छइ सो मिच्छा-छलिउ काम-कोह-भय-भूऍहिँ वाहिउ॥11.3॥ तदनन्तर, वह महामुनि संसारानुप्रेक्षा का चिन्तन करते हुए विचारते हैं- चारों गतियों में भ्रमण करते हुए जीव मर्यादारहित होकर कर्मवश सैकड़ों संकीर्ण योनियों, कुलों, आयु तथा योगों को प्राप्त करता है। जन्म से जन्मान्तर को धारण करते हुए इस जीव ने कौन-सा गोत्र नहीं पाया! पिता पुत्र और पुत्र पिता हो जाता है, मित्र शत्रु और शत्रु बान्धव हो जाते हैं। माता स्त्री और स्त्री माता बन जाती है। बहन पुत्री और पुत्री बहन हो जाती है। स्वामी दास होकर उत्पन्न हो जाता है और दास श्रेष्ठ स्वामी बन
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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