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________________ 16 अपभ्रंश भारती 17-18 आसि निमित्तु जं जि अणुरायहो दिवसहिं कारणु तं जि विसायहो। मोहें तो वि जीउ अवगण्णइ अजरामरु अप्पाणउ मण्णइ। घत्ता- अद्भुवभावण एह मणे जायइ जासु विवज्जियकामों। दसणनाणचरित्तगुणु भायणु होइ सो ज्जि सिवधामहो।।11.1।। - जैसे-जैसे उपसर्ग बढ़ता जाता है वैसे-वैसे महामुनि विद्युच्चर जगत की अनित्यता का चिन्तन करते हैं। वे विचारते हैं कि- आयु उसी प्रकार खण्डित हो जाती है जैसे गिरि-नदी का पूर। मनुष्य-जीवन उसी प्रकार टूट जाता है जैसे पके हुए फल वृक्ष से टूटकर गिर जाते हैं। लक्ष्मी, लावण्य, शरीर का गौर-कृष्ण आदि वर्ण, यौवन और बल अंजलि के जल के समान देखते ही देखते गलित हो जाते हैं। बान्धव, पुत्र, स्त्री तथा अन्य सभी इस तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे वायु से आहत होकर पत्ते नष्ट हो जाते हैं। रथ, हाथी, घोड़े, यान और पालकी सब नये उमड़ते हुए बादलों के समान क्षणभंगुर है। चमर, छत्र, ध्वजा और सिंहासन आकाश में चमकते हुए विद्युत के चंचल विलास का भी उपहास करनेवाले हैं अर्थात् उससे भी अधिक क्षणिक हैं। पहले जो अनुराग का कारण होता है, वही दिन व्यतीत होने पर विषाद का कारण बन जाता है। इतना होने पर भी मोह के कारण जीव इसकी उपेक्षा कर अपने को अजर-अमर मानता है। यह अनित्य भावना जिस कामरहित व्यक्ति के मन में उत्पन्न होती है वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों से युक्त मानव मोक्ष प्राप्त करता है। अशरण भावना मरणसमएँ जमदूयहिं निज्जइ असरणु जीउ केण रक्खिज्जइ। जइ वि धरंति धरियधुर माणव गरुड-फणिंद-देव-दिढदाणव। अक्क-मियंक-सुक्क-सक्कंदण हरि-हर-बंभ वइरि-अक्कंदण। पण्णारहं खेत्तेसु सुहंकर कुलयर-चक्कवट्टि-तित्थंकर। जइ पइसरइ गाढपविपंजरे गिरिकंदरे सायरे नइ-निज्झरे। हरिणु जेम सीहेण दलिज्जइ तेम जीउ कालें कवलिज्जइ। आउसु कम्मु निबद्धउ जेत्तउ जीविज्जइ भुजंतहँ तेत्तउ। तहो कम्महो थिरु खणु वि न थक्कइ तिहुवणे रक्ख करेवि को सक्कड़। घत्ता- दुत्तरें भवसायरसलिलें वुटुंतहँ जगे को साहारइ। जिणसासण-उवएसियउ दहविहु धम्मु एक्कु पर तारइ॥11.2।।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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