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अपभ्रंश भारती 13-14
वात्सल्य भाव
खगेश्वर जटायु अपने पूर्वभव के स्मरण से यह जानकर कि मुझ पापी ने 500 मुनियों को पीड़ित किया है, प्रलाप करते हुए अश्रुधार छोड़ने लगा। तभी मातृतुल्य सीतादेवी ने उस जटायु को आशीर्वचन देते हुए कहा- 'हे मेरे पुत्र ! तुम शीघ्र बढ़ो और सुख धारण करो । "
2. कठोर भावों से युक्त सीता
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रावण के सम्मुख सीता
दृढ़ता - सीता को हरकर ले जाते हुए रावण समुद्र के मध्य सीता से यह कहकर पगली ! तुम मुझे क्यों नहीं चाहती, महादेवी के पट्ट की इच्छा क्यों नहीं करती ? आलिंगन करना चाहता है। तब अपने शील की रक्षा में तत्पर सीता यह कहकर भर्त्सना करती है- 'हे रावण तुम थोड़े ही दिनों में युद्ध में राम के तीरों से जीत लिए जाओगे।'
इस भर्त्सनारूपी अस्त्र ने ही रावण को स्वयं के द्वारा गृहीत व्रत का स्मरण दिलाया। उस व्रत को स्मरणकर रावण सोचता है- 'मुझे भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए, बलपूर्वक दूसरे की स्त्री को ग्रहण नहीं करना चाहिए ।'
अपनी दृढ़ता से ही सीता ने पति की वार्ता सुनने तक लंकानगरी में प्रवेश करने से मनाकर नन्दन वन में ही ठहरने के लिए रावण जैसे पराक्रमी शासक को भी राजी कर लिया । "
पुन: रावण सीता के समक्ष याचक बनकर गिड़गिड़ाता है- 'हे देवी! हे सुन्दरी ! मैं किससे हीन हूँ, क्या मैं कुरूप हूँ या अर्थ-रहित हूँ ? क्या मैं सम्मान, दान और रण में दीन हूँ ? बताओ तुम किस कारण से मुझे नहीं चाहती ?'
तब सीता उसके याचक रूप का तिरस्कार करते हुए कहती है कि- 'हे रावण ! तुम हट जाओ, तुम मेरे पिता के समान हो ! परस्त्री को ग्रहण करने में कौन-सी शुद्धि होती है ? जब तक तुम्हारे अपयश का डंका नहीं बजता और लंकानगरी नाश को प्राप्त नहीं होती तब तक हे नराधिप, तुम राघवचन्द्र के पैर पकड़ लो। "
धार्मिक आस्था रावण ने यह सोचकर कि शायद यह भय के वश मुझे चाहने लगे उसको भयभीत करने के लिए भयंकर उपसर्ग करने शुरू किये। उस भयानक उपसर्ग को देखने से उत्पन्न हुए रौद्र ध्यान को चूर-चूर कर तथा अपने मन को धर्म - ध्यान से आपूरित कर सीता ने प्रतिज्ञा ले ली कि जब तक मैं गम्भीर उपसर्ग से मुक्त नहीं होती तब तक मेरे चार प्रकार के आहार से निवृत्ति है । इस तरह धर्म की ताकत से सीता ने भयानक उपसर्गों को भी सहन कर लिया । "
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अलोभ प्रवृत्ति - सीता को वश में करने के लिए अपनी ऋद्धि के प्रभाव से रावण ने उसे पुष्पक विमान पर चढ़ाकर बाज़ार की शोभा दिखायी तथा चूड़ा, कण्ठा, करधनी