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अपभ्रंश भारती 13-14 तइयएँ सयलु अंगु · परितप्पइ । चउथएँ णं करवत्तेहिं कप्पड़ । पञ्चमें पुणु पुणु पासेइज्जइ। छट्टएँ वारवार मुच्छिज्जइ। सत्तमे जलु वि जलद्द ण भावइ । अट्ठमें मरण-लीला दरिसावइ । णवमएँ पाण पडन्त ण वेया।
दसमएँ सिरु छिज्जन्तु ण चेयइ ।। 26.8.4-8 ।। - पहली अवस्था में वह किसी समान व्यक्ति से बात नहीं करता, दूसरी में लम्बे निःश्वास छोड़ने लगता है, तीसरी में सारे अंग सन्तप्त हो उठते हैं, चौथी में जैसे करपत्र से काटा जा रहा हो, पाँचवीं में बार-बार पसीना आने लगता है, छठी में बार-बार मूर्छा आने लगती है, सातवीं में जल या जल से गीला कपड़ा अच्छा नहीं लगता, आठवीं में वह मृत्युलीला दिखाता है। नौवीं में नहीं जाते हुए प्राणों को नहीं जानती; दसवीं में फटते हुए सिर को नहीं जानती। वहीं रावण सीता के सौन्दर्य पर लुब्ध अपनी सुध-बुध खो बैठता है -
पहिलऐं वयणु वियारेहिं भज्जड़। पेम्म-परव्वसु कहों वि ण लज्जइ। वीयएँ मुह-पासेउ वलग्गइ। सरहसु गाढालिंगणु मग्गइ। वीयएँ अइ विरहाणलु तप्पड़। काम-गहिल्लउ पुणु पुणु जम्पइ। चउथएँ णीससन्तु णउ थक्कड़ । सिरु संचालइ भउँहउ वंकइ । पञ्चमें पञ्चम - झुणि आलावड़। विहसें वि दन्त-पन्ति दरिसावइ । छडएँ अंगु वलइ करु मोडइ। पुणु दाढीयउ लएप्पिणु तोडइ। वदृइ तल्लवेल्ल सत्तमयहाँ। मुच्छउ एन्ति जन्ति अट्ठमय हों।