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________________ अपभ्रंश भारती 13-14 णवमउ वट्टइ मरणहाँ ढुक्कउ। दसमएँ पाणहिँ कह व ण मुक्कउ ॥ 38.5.1-9॥ - पहली अवस्था में उसका मख विकारों से भग्न हो जाता है, प्रेम के वशीभत वह किसी से भी लज्जित नहीं होता। दूसरी में मुख से पसीना निकलने लगा और वह हर्षपूर्वक प्रगाढ़ आलिंगन माँगने लगता। तीसरी में वह विरहानल से अत्यधिक सन्तप्त हो उठता। काम से ग्रस्त होकर वह बार-बार बोलता। चौथी में निःश्वास लेते हुए नहीं थकता। सिर हिलाता और भौंहों को टेढ़ी करता। पाँचवीं में पंचम स्वर में अलाप करता और हँसकर अपनी दन्तपंक्ति दिखाता। छठी में शरीर को मोड़ता और हाथ मोड़ता फिर दाढ़ी को पकड़कर नोचता। सातवीं अवस्था में तड़फने लगता। आठवीं में मूर्छा आती और जाती। नौवीं में मृत्यु निकट आ पहुँची। दसवीं अवस्था में वह प्राणों से किसी प्रकार मुक्तभर नहीं हुआ। यह नहीं, सीता का सान्निध्य प्राप्त करनेवाले राम के प्रारब्ध की वह भूरि-भूरि प्रशंसा करता है - जेण समाणु एह धण जम्पइ। मुह-मुहेण तम्बोलु समप्पड़। X जं आलिङ्इ वलय-सणाहहिँ। मालइ-माला-कोमल-वाहहिँ। 38.4 ।। - जिसके साथ यह कन्या बात करती है, बार-बार उन्हें पान समर्पित करती है। जो वह वलयों से सहित, मालती-माला के समान कोमल बाहों से आलिंगन करती है। • सुरति-चित्रण एवं रमण के प्रसंग भी ‘पउमचरिउ' में विद्यमान हैं। इस प्रकार ‘पउमचरिउ' समाज, नीति की तुलना में भक्ति, शृंगार, वीर-भाव से पूर्ण सुन्दर- 'वुहयण-मण-सुह-जणणो' व्याकरण से दृढ़ सन्धि-युक्त, आगम का अंगभूत, प्रमाणों से पुष्ट पदयुक्त काव्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं। 1. डॉ. राकेश गुप्त, साहित्यानुशीलन, पृ. 254 वही, पृ. 255 स्वयंभूदेव, पउमचरिउ, सन्धि-90.14 वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, पृ. 15.25-26 अध्यात्म रामायण, बालकाण्ड, चतुर्थ/17 मानस, बालकाण्ड, पृ. 207 साकेत, अष्टम सर्ग, पृ. 137 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 63 5.
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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