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अपभ्रंश भारती 13-14
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करते हैं। उसके पश्चात् नर्मदा तथा ताप्ती नदी पार करके दण्डक वन से क्रोंच नदी पार करके वंशस्थल नगर की सीमा में प्रवेश करते हैं । स्वयंभू द्वारा वर्णित वनमार्ग को देखने से एक तथ्य स्पष्ट होता है कि स्वयंभू की दृष्टि दक्षिण की ओर ही केन्द्रित रही है। उन्होंने वनमार्ग में गंगा जैसी प्रचलित नदी का उल्लेख तक नहीं किया है ।
'मानस' में वन - मात्रा का मार्ग 'आदिरामायण' के अनुसार वर्णित किया गया है, अयोध्या से राम-सीता का लक्ष्मणसहित शृंगवेरपुर पहुँचना, वहाँ निषाद से भेंट करके गंगा नदी पार करके प्रयाग पहुँचना । भरद्वाज से भेंट करके यमुना पार पहुँचना, तत्पश्चात् चित्रकूट पहुँचना, वहाँ से दण्डक वन में प्रवेश, तदुपरान्त पंचवटी पहुँचकर गोदावरी के समीप निवास । उसके बाद ऋष्यमूक पर्वत तथा पम्पासरोवर का उल्लेख प्राप्त होता है। तत्पश्चात् माल्यवान् पर्वत का वर्णन किया गया है जहाँ राम सीता के वियोग में वर्षा ऋतु व्यतीत करते हैं। हनुमान के लंका से वापस आने के उपरान्त राम सेनासहित सुबेल पर्वत पर निवास करते हैं । वहाँ श्रीरामेश्वर की स्थापना के उपरान्त समुद्र पर सेतु बाँधकर लंका में प्रवेश करते हैं । शम्बूककुमार प्रसंग
रावण की बहन तथा पाताललंका के राजा खर की पत्नी चन्द्रनखा का पुत्र शम्बूककुमार 'सूर्यहास खड्ग' की प्राप्ति हेतु तपस्या कर रहा था । अकस्मात् अनजाने ही लक्ष्मण के हाथों उसकी मृत्यु हो जाती है। 'पउमचरिउ' में शम्बूक का वध करने का लक्ष्मण का कोई प्रयोजन नहीं था । शम्बूक वध का उल्लेख वाल्मीकि तथा भवभूति ने भी अपनीअपनी राम - कथाओं में किया है परन्तु किंचित् भिन्नता के साथ । 'वाल्मीकि रामायण' में राम शम्बूक का वध मात्र इसलिये करते हैं क्योंकि वह शूद्र-पुत्र होते हुए भी तपस्या कर रहा था । वाल्मीकि के राम के मन में शम्बूक को वध करते समय किसी भी प्रकार का करुण भाव नहीं था परन्तु भवभूति के राम के मन में एक बार करुण भाव जाग्रत होता । यहाँ पर 'पउमचरिउ' तथा 'वाल्मीकि रामायण' एवं भवभूति रामायण में किंचित् भिन्नताओं के अतिरिक्त मुख्य अन्तर यह है कि 'पउमचरिउ' में जहाँ शम्बूक का वध लक्ष्मण द्वारा होता है वहीं इन दोनों रामकाव्यों में राम द्वारा होता है । परन्तु 'मानस' में शम्बूक-वध प्रसंग का कहीं भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है ।
माया- सीता का प्रसंग
'रामचरितमानस' में शूर्पनखा - प्रसंग के उपरान्त यह उल्लेख आता है कि राम सीता से कहते हैं कि मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य - लीला करूँगा । इसलिये जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ तब तक तुम अग्नि में निवास करो, यह सुनकर सीता राम के चरणों में मस्तक नवाकर अग्नि में समा गयीं । सीता ने अपने ही गुणों से युक्त एक प्रतिमूर्ति वहाँ रख दी, इस रहस्य से लक्ष्मण भी परिचित नहीं हो सके, क्योंकि उस समय वहाँ लक्ष्मण नहीं थे ।