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अपभ्रंश भारती - 11-12
67 8. हिन्दी-साहित्य का आदिकाल, पृ. 84। 9. 'जिण मुक्खण पंडिय मज्झपार, तिहपुरउ पढिव्वउसव्वपार। 10. भाषा के संबंध में देखिए - हिन्दी-साहित्य का आदिकाल, पृ. 45, आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी। 11. 'जेम अचिन्तिउ ऊज्जा तसु, सिद्ध खणद्धिमहन्तु।
तेय पढन्त सुणन्त यह, जयउ अणइ अणन्तु ॥' अर्थात् 'उस विरहिणी की कामना जिस प्रकार अप्रत्याशित रूप से छिनभर में ही सिद्ध हो गई। उसी प्रकार इस काव्य के पढ़नेवालों की भी पूरी हो - अनादि-अनन्त देवता की जय हो।'
संदेश-रासक की फलश्रुति को ध्यान में रखकर कुछ विद्वानों ने इसे भी जैन-पथानुगामी बताया है, किन्तु यह उचित नहीं है। यह काव्य तो शुद्ध शृंगारिक है, जो अत्यन्त सरस एवं मार्मिक है।
14, खटीकान, मुजफ्फरनगर,
उ.प्र. 251002