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________________ 68 अपभ्रंश भारती - 11-12 जहिं सव्वइँ दिव्वइँ माणुसाइँ जं छण्णउ सरसहिँ उववणेहिँ णं विद्धउ वम्महमग्गणेहिँ। कयसद्दहिँ कण्णसुहावएहिँ कणइ व सुरहरपारावएहिँ। गयवरदाणोल्लिय वाहियालि जहिँ सोहइ णं पवसियपियालि। सरहंसइँ जहिँ णेउररवेण मउ चिक्कमति जुवईपहेण। जं णिवभुयासिवरणिम्मलेण अण्णु वि दुग्गउ परिहाजलेण। पडिखलियवइरितोमरझसेण पंडुरपायारिं णं जसेण। णं वेढिउ वहसोहग्गभारु णं पुंजीकयसंसारसारु। जहिं विलुलियमरगयतोरणाइँ चउदार णं पउराणणाइँ। . जहिँ धवलमंगलुच्छवसराइँ दुतिपंचसत्तभोमइँ घराई। णवकुंकुमरसछडयारुणाई विक्खित्तदित्तमोत्तियकणाईं। गुरुदेवपायपंकयवसाइँ जहिँ सव्वइँ दिव्वइँ माणुसाइँ। सिरिमंतइँ संतइँ सुत्थियाइँ जहिँ कहिँ मि ण दीसहिँ दुत्थियाइँ। जहिँ णिच्च विजयदुंदुहिणिणाउ तहिँ मारिदत्तु णामेण राउ। जसहरचरिउ 1.4 वह राजपुर नगर सरस उपवनों से आच्छादित होता हुआ मानो कामदेव के सरस बाणों से विद्ध था। देवालयों में वास करनेवाले पारावतों की कर्ण-मनोहर ध्वनियों के बहाने मानो वह पुर गा रहा था। नगर का बाहरी मैदान श्रेष्ठ हाथियों के मद से गीला हुआ ऐसा शोभायमान था जैसे मानो प्रवासी प्रेमियों की प्रियाओं की पंक्ति । वहाँ के सरोवरों के हंस युवती स्त्रियों के नूपुरों की ध्वनि से आकृष्ट होकर उन्हीं के मार्ग का धीरे-धीरे अनुगमन कर रहे थे। वह पुर यथार्थतः तो वहाँ के नरेश के भुजारूपी खड्ग से सुरक्षित था, तथा गौणरूप से दुर्ग की परिखा द्वारा । आक्रमणकारी वैरियों के मुद्गरों और भालों को कुण्ठित करनेवाले श्वेत कोट से घिरा हुआ दुर्ग मानो अपने स्वामी के यश से वेष्टित था। सौभाग्य की समस्त सामग्री से भरपूर वह नगर मानो संसारभर की सार वस्तुओं का पुंज ही था। कोट के चारों द्वार डोलते हुए मरकत मणियों के तोरणों से ऐसे शोभायमान थे, जैसे मणिमय हारों से युक्त पुरवासियों के मुख। वहाँ दो, तीन, पाँच व सात मंजिलों के घर धवल मंगल व उत्सवों के स्वरों से गूंज रहे थे। वहाँ नये केसर रस के लेप से लाल, धारण की हुई मोतियों की मालाओं से देदीप्यमान, गुरु और देव के चरण-कमलों के भक्त, श्रीमन्त, शान्त और स्वस्थ सभी मनुष्य देवों के समान थे। वहाँ कहीं भी दु:खी मनुष्य दिखाई नहीं देते थे। वहाँ मारिदत्त नाम का राजा था जिसकी विजय दुन्दुभी का नाद नित्य सुनाई पड़ता था। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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