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________________ 45 अपभ्रंश भारती - 11-12 के भाने से व्यक्ति शरीर व भोगों से निर्विण्ण होकर साम्यभाव में स्थिति पा सकता है। अनित्य भावना में संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, ऐसा विचार, अशरण भावना में कष्ट-मरण में तथा आपत्ति-विपत्तियों में अपनी आत्मा के अतिरिक्त कोई भी रक्षा नहीं करता, ऐसा विचार; संसार भावना में यह संसार महादुःखों का भण्डार है, ऐसा चिंतवन; एकत्व भावना में जीव संसार में अकेला आया ऐसा है श्रद्धान; अन्यत्व भावना में चेतन-अचेतन समस्त पदार्थ अपने से अलग हैं, ऐसा भाव; अशुचिभावना में यह शरीर मल-मूत्र से वेष्ठित है, उसमें मोह करना निस्सार है, ऐसा भाव; आस्रवभावना में कर्मों का आत्मप्रदेश से किस प्रकार से बँधना होता है, ऐसा चिन्तवन; संवर भावना में कर्म और उसकी बंध-प्रक्रिया को कैसे रोका जाए, ऐसा भाव; निर्जराभावना में बँधे हए कर्मों की निर्जरा/छुटकारा कैसे हो? ऐसा विचार; लोक में किस प्रकार से ठहरा है? स्वर्ग, मध्यलोक कहाँ पर अवस्थित है? ऐसा विचार; बोधिदुर्लभ भावना में सम्यग्दर्शनादि रूप रत्नत्रय की उपलब्धि कितनी कठिन है, उसे कैसे प्राप्त किया जाए, ऐसा भाव; तथा धर्मभावना में धर्म क्या है ऐसा चिन्तवन धार्मिक प्राणियों द्वारा बार-बार किया जाता है। ___ प्रस्तुत काव्य में कविवर ने इस चरितकाव्य के माध्यम से मूलनायक राजा करकंड को द्वादश अनुप्रेक्षाओं के स्वरूप और उसके महत्त्व को विस्तार से समझाया है जिससे प्रभावित होकर नृपवर की छिपी हुई वैराग्य भावना बलवती होती है और अन्ततोगत्वा वे समस्त वैभव त्यागकर जिनेन्द्रमार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन को सफल बनाते हैं । यथा - हा माणउ दुक्खइँ दड्ढ़तणु विरसु रसंतउ जहिं मरइ। भणु णिग्घिणु विसयासत्तमणु सो छंडिवि को तहिं रइ करइ॥ (9.4) - हाय, जहाँ मानव दुःख से दग्ध-शरीर होकर बुरी तरह कराहता हुआ मरता है, ऐसे संसार में निर्लज्ज व विषयासक्त मनुष्य को छोड़, कहो और कौन प्रीति कर सकता है? अनित्य भावना णिज्झायइ जो अणुवेक्ख ‘चल वइरायभावसंपत्तउ। सो सुरहरमंडणु होइ णरु सुललियमणहरगत्त॥ (9.6) - जो वैराग्यभाव को प्राप्त होकर इस अनित्य अनुप्रेक्षा का ध्यान करता है वह नर सुललित और मनोहर गात्र होकर देवों के विमान का आभूषण बनता है। अशरण भावना असरणअणुवेक्खउ जो वि पुणु अणुदिणु भावइ णिययमणे (9.7) - जो कोई उस अशरण अनुप्रेक्षा की प्रतिदिन अपने मन में भावना करता है (वह स्वर्गसुखों को पाता है)।
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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