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अपभ्रंश भारती - 11-12
संसार भावना
संसारहँ उवरि णिहालणउ किउ जेण णरेण कयायरेण।
भणु काइँ ण लद्धउ तेण जइ पवररयणरयणायरेण॥ (9.8) -- जिस मनुष्य ने भले प्रकार संसार के ऊपर अवलोकन किया और महान रत्नत्रयरूपी रत्न प्राप्त कर लिये उसे कहो, इस जग में क्या नहीं मिला? एकत्व भावना
इह अणुवेक्खा जो अणुसरइ सीलैं मंडिवि णिययतणु।
सासयपए सो सुहणिलए एक्कल्लउ सोहइ मुक्कतणु॥ (9.9) - जो कोई अपने शरीर को शील से मण्डित कर इस एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुसरण करता है वह शरीर से मुक्त होकर सुख के निलय शाश्वत पद में अद्वितीय रूप से शोभायमान होता है। अन्यत्व भावना
एह अणुवेक्खा थिर करिवि णियमणि झायइ जो जि णेरु।
सो परमप्पउ णिम्मलउ देह विवज्जिउ होइ वरु॥ (9.10) - जो मनुष्य इस अनुप्रेक्षा को स्थिर करके अपने मन में ध्याता है वह देह से विवर्जित, निर्मल और उत्तम परमात्मा हो जाता है। अशुचि भावना
उप्पण्णउ सुक्कइँ सोणियइँ असुइसहावउ जो जणु झायइ।
एह अणुवेक्खा णित्तुलिय तं पुणु सिद्धिहे मग्गएँ लायइ॥ (9.11) - यह शरीर शुक्र व शोणित से उत्पन्न हुआ स्वभावतः अशुचि है - ऐसा जो मनुष्य ध्यान करता है उसे यह अनुपम अनुप्रेक्षा सिद्धि के मार्ग पर लगा देती है। आस्त्रव भावना
बँधहोकारणु करेवि तणु अणुवेक्ख जो झायइपुणु हियए।
सो धण्णउ सासयसोक्खरसु अविरामएँ सो णरु तहिं पियए॥ (9.12) - जो इस शरीर को बन्ध का कारण मानकर हृदय से इस अनुप्रेक्षा का ध्यान करता है वह मनुष्य धन्य है। वह शाश्वत सुखरूपी रस का अविराम भाव से पान करेगा। संवर भावना
खमदमसहियउ गुणणिलउ एयउ जो पयडिउ संवरइ।
अणुइंजिवि सोक्खइँ सग्गे पुणु सो सिद्धिहे सम्मुहुँ संचरइ॥ (9.13) -- जो कोई क्षमा व दमन (इन्द्रिय-निग्रह) से सहित, गुणों का धारी होता हुआ इन कर्मप्रकृतियों को संवर कर लेता है वह स्वर्ग में सुख भोगकर फिर सिद्धि (मोक्ष) की ओर गमन करता है।