________________
अपभ्रंश भारती 11-12
सफलता प्राप्त करायी है । अन्त में उसे अपने राज्य वैभव के भोग भोगते यथार्थ भव-भ्रमण का अभिज्ञान हो जाता है। उसके इस अभिज्ञान में कवि ने धार्मिक अभिव्यञ्जना की मूलभूत भूमिका को आधार बनाया है। इस हेतु इस काव्य में स्थान-स्थान पर धार्मिक तत्त्वों से उद्बोधन दिया गया है । यहाँ विवेच्य काव्य में अभिव्यक्त धार्मिक अभिव्यञ्जना को संक्षिप्त करना हमें अभीष्ट है।
44
प्रत्येक रचना के प्रारम्भ में कवि / लेखक अपने आराध्यदेव की वंदना करता है ताकि उसके समस्त कार्य निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो सकें। मुनिजी ने भी इस परम्परा को ध्यान में रखकर अपने इस काव्य का सृजन करते समय जिनेन्द्रदेव की वन्दना की है। वंदना में वे कहते हैं कि मैं उन श्री जिनेन्द्रदेव के चरणों का स्मरण करता हूँ जिन्होंने अपने समस्त राग मिटा दिए हैं, जो परमात्मपद में लीन हैं और जन्म-मृत्यु से रहित हैं। ऐसे वीतरागी देव के स्मरण मात्र से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। यथा -
मणमारविणासहो सिवपुरिवासहो
पावतिमिरहरदिणयरहो ।
परमप्पयलीणहो विलयविहीणहो सरमि चरणुसिरि जिणवरहो । (1.1) रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध चैतन्य गुणों के धारक और समस्त कर्मजनित उपाधियों से रहित आत्मा अर्थात् जिनेन्द्रदेव की स्तुति का विधान जैनागम में स्पष्टतः परिलक्षित है।
विवेच्य काव्य में जिनेन्द्र की स्तुति मात्र दो स्थलों पर की गई है। एक स्थल पर जब मूलनायक राजा करकण्ड द्रविणदेश को जीतने के लिए सेनासहित प्रयाण करते हैं तो मार्ग में पड़नेवाले सरोवर में जिनेन्द्र-बिम्ब के अभिदर्शन कर उत्तम भक्ति से उनके गुणों का चिंतन करते हुए स्तुति करते हैं, यथा -
जय जय देव जिणिंद पहु पइँ झायइँ अणुदिणु णियमणिण |
तव दंसणे णयणइं अज्जु पुणु संजायइँ णिद्धइँ महो खणिण ॥ ( 410 )
दूसरी बार लयण / गुफा में प्रतिष्ठित जिनबिम्ब के सिंहासन पर विद्यमान गाँठ के रहस्य के बारे में जब नृपति देव से पूछता है तो देव उस लयण की कथा को विस्तार से बताते हुए कहता है कि अमितवेग और सुवेग नामक विद्याधरों ने जैनधर्म ग्रहणकर, सिरपूछी पर्वत पर चतुर्विंशति जिनालय के दर्शनकर जिनेन्द्र की स्तुति भक्तिपूर्वक तीनों गुप्तियों - मनसा वाचा कर्मणा से की थी । यथा -
जय
जिण
केवलणाणरविमिच्छत्ततिमिरणिण्णासयर ।
ते दिवि पूजिवि संधुणिवि एक्केक्क णिहालहिं पुणु खयर ॥ (5.6) सांसारिक विषयों से विरक्ति वस्तुतः विराग कहलाती है। जैनधर्म में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ तथा धर्मभावना नामक बारह भावनाओं को अनुप्रेक्षाओं के रूप में जाना जाता है जिनके बार-बार चिंतवन से कषाय-कलापों में लीन चित्तवृत्तियाँ वीतराग की ओर प्रेरित होती हैं। वास्तव में इन भावनाओं