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अपभ्रंश भारती - 11-12
योगसार 108 पद्यों का मुक्तक काव्य ग्रन्थ है। इसमें परमात्मप्रकाश के ही विषय का पुनरावर्तन है। विषय-विवेचना में क्रमबद्धता का अभाव है। कवि ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ, उनके स्वरूप, भवभ्रमण के कारणों तथा उनसे निवृत्ति के उपायों का निदर्शन किया है। आडम्बरपरक बाह्याचार का खण्डन कर आत्मशुद्धि का प्रतिपादन किया है। इसमें उन्होंने धर्म-साधना के साथ रहस्यवादी प्रवृत्तियों को भी बतलाया है। सामरस्य भाव इनकी महत्त्वपूर्ण साधना है। इसी साधना द्वारा आत्मा परमात्मपद को प्राप्त करता है। आत्मा से परमात्मा बनने की साधना ही यथार्थ में योगी/मुनि बनकर योगों से परे होने की साधना है। यही अयोग साधना है। इसे जानने के पूर्व योग के विषय में जानना आवश्यक है। ___ योग शब्द की व्युत्पत्ति 'युज्' धातु से मानी गई है। इसके अनेक अर्थ हैं, उनमें 'जोड़ना'
और 'समाधि' प्रमुख हैं। बौद्ध परम्परा में 'युज्' का प्रयोग 'समाधि' अर्थ में हुआ है। वैदिक परम्परा में महर्षि पातञ्जलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है।' अथवा समत्व और उदासीन भाव से कर्म करने की कुशलता को योग कहा है। जैन दर्शन में योग का अर्थ इनसे भिन्न है। काय, वचन और मन की प्रवृत्ति से आत्मा के प्रदेशों में हलन-चलन/परिस्पन्दन होना योग है - कायवाङमनः कर्मयोगः। योग कर्मों के आने का कारण है, इसे जैनागम में आस्रव कहा है - स आस्रवः। ____ हलन-चलन आदि क्रियाओं और इन्द्रिय-विषयों के ग्रहण करने की प्रवृत्ति में काया की चंचलता दिखाई देती है । अन्तर्वाक् और बहिर्वाक् द्वारा वाणी का चान्चल्य प्रकट होता है । स्मरण, विचार, कल्पनाएँ मन को अस्थिर कर देती हैं । काया की प्रवृत्तियाँ अत्यन्त स्थूल, वचन की उससे सूक्ष्म और मन की प्रवृत्ति अत्यन्त सूक्ष्म हैं। इन प्रवृत्तियों की सूक्ष्मता में क्रमशः वृद्धि होने पर भी इनकी चंचलता अनन्त गुनी बढ़ती जाती है। इसी कारण काया की अपेक्षा वचन तथा वचन की अपेक्षा मन के चाञ्चल्य से होनेवाले कर्म-बन्ध में अनन्तगुनी तीव्रता होती है।
हरिभद्रसूरि ने मोक्ष से जोड़नेवाले समस्त विशुद्ध व्यापार को योग कहा है। 'आत्मसाक्षात्कार का पथ' कृति में तीन विषय के साथ जोड़ने को योग कहा है -
(1) रागादि के परिहार में आत्मा को लगाना अर्थात् राग-द्वेष भाव छोड़कर आत्मा को आत्मा से जोड़ना।
(2) सम्पूर्ण संकल्प-विकल्पों के अभाव में आत्मा को जोड़ना। (3) विपरीताभिनिवेश का त्यागकर सत्-चित्-आनन्द तत्त्व में आत्मा को जोड़ना।
उपाध्याय यशोविजयजी ने समस्त व्यापार धर्म से पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माता की प्रवृत्ति को योग कहा है।
जैन दर्शन में योग आस्रव तथा कर्मबन्ध का कारण है। जहाँ कर्मबन्ध है वहाँ विकृति है, विभाव है, चंचलता है, अनित्यता है, अस्थिरता है, भव-भ्रमण है। इनको दूर करने के लिए