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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 35 अक्टूबर - 1999, अक्टूबर - 2000 योगसार का सार : योगों से निवृत्ति - डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र' संसार का प्रत्येक प्राणी सुखाकांक्षी है। वह इच्छाओं की पूर्ति में ही सुख मानता है और उसी के लिए निरन्तर प्रत्यनशील रहता है। वह भोगोपभोग की सामग्रियों को जुटाता है, उनका उपयोग/उपभोग करता है पर क्षणिक तृप्ति के बाद उसकी व्यग्रता, आकुलता पुनः बढ़ जाती है, उसे पूर्णत: शाश्वत शान्ति - सन्तुष्टि नहीं मिल पाती। इससे यह तो निश्चित है कि सुखप्राप्ति के मूल कारण को नहीं जाना। बिना कारण के कार्य की सिद्धि असंभव है और इसीलिए किया गया प्रयास निरर्थक चला जाता है। दु:ख और उसके कारण तथा उससे निवृत्ति के उपाय/सुख की उपलब्धि के साधन हमारे देश के दार्शनिक आध्यात्मिक चिन्तक/विचारकों ने प्रतिपादित किये हैं। जैन दर्शन में चौबीस तीर्थंकरों, उनके गणधरों, कुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी समन्तभद्राचार्य, उमास्वामी आदि अनेक आचार्यों ने अपने उपदेश द्वारा तथा ग्रन्थ-रचना द्वारा दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त किया है । इन आचार्यों के ग्रन्थ प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में हैं । कविवर जोइन्दु ने अपभ्रंश भाषा में परमात्मप्रकाश और योगसार ग्रन्थ की रचनाकर रूढ़ियों और बाह्याडम्बरों के विरुद्ध जनसामान्य के लिए सहज-सरलरूप से जीवन-मुक्ति का संदेश दिया और आध्यात्मिक गंगा को प्रवाहित किया है। यहाँ योगसार की अयोग-साधना पर विचार किया जा रहा है।
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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