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________________ 34 अपभ्रंश भारती - 11-12 रयणायरु णावइ सायरु ताह चम्पापुरु छज्जइ तहिँ मणोज्जु रिद्धीएँ समिद्धउ अत्थि देसु अंगउ सुपसिद्ध। निविडण्णोण्णु भिडिय गुरुअज्जुण दुज्जोहणसुभीमगयकयरण। सरहभीसवाणवलिछाइय भारहसरिस जेत्थु वणराइय। सुविसालाइँ सिसिरसाहालइँ अविरलसुरहिपसवसोहाल। तरुणिकायलग्गिरपोमरयइँ जहिँ उववण' व गोउलणियर। खत्तसारपरिसाहिय खेत्तइँ बहु करिसणइँ ललियकरजुत्तइँ। णियवइरक्खियाइँ दिढकच्छइँ जहिँ गामइँ सामंतसरिच्छइँ। सुरयणपरियंचियकल्लाण जहिँ जिणवरसरिसइँ पुरठाणइँ। घत्ता - रयणायरु णावइ सायरु तहिँ चंपापुरु छज्जइ।। बहुसुरहरु विबुह - मणोहरु अह सुरवइपुरु णज्जइ ॥2॥ सुदंसणचरिउ 2.2 ऐसे उस भरतक्षेत्र में मनोज्ञ, ऋद्धि से समृद्ध व सुप्रसिद्ध अंगदेश है। वहाँ के वनों में बड़े-बड़े विशाल अर्जुन वृक्ष परस्पर ऐसी सघनता से भिड़े हुए हैं जैसे मानो गुरु द्रोणाचार्य और अर्जुन परस्पर युद्ध में भिड़े हों। दुर्योधन और बड़े भीमकाय गज रण में ऐसे गुथे हुए दिखाई देते हैं जैसे दुर्योधन और भीम गदायुद्ध कर रहे हों। शरभ और भीषण वाणों के झुण्ड ऐसे छाये हुए हैं जैसे रथों पर चढ़े हुए योद्धाओं की भीषण वाणावलि से आच्छादित हो। इस प्रकार अंगदेश की वनराजि महाभारत सदृश दिखाई देती थी। वहाँ गोकुलों के समूह सुविशाल और शीतल दधिशालाओं से युक्त, निरन्तर गउओं द्वारा प्रसूत बच्छड़ों की शोभा सहित तथा तरुणी गोपिकाओं का आलिंगन करते हुए ग्राम युवकों सहित वहाँ के उपवनों के सदृश ही दिखाई देते थे, जहाँ सुविशाल, शीतल शाखालय थे, निरन्तर सुगन्धी पुष्पों की शोभा थी, तथा वृक्षों के समूहों पर पुष्पों की रज लगी हुई थी। वहाँ गाँवों के खेत उत्तम खाद से खूब उर्वर बनाए गए थे। बहुत से कृषकों से बसे हुए थे, उनपर कर भी स्वल्प लगाया जाता था। अपने-अपने भूमिपति द्वारा रक्षित सुदृढ़ कछारों सहित थे। अतएव वे ग्राम उन सामन्तों के समान थे जिन्होंने श्रेष्ठ क्षत्रियत्व द्वारा अपने क्षेत्र को वशीभूत कर लिया था, जो खूब खींचकर बाण चलाते थे, जो ललित करों से युक्त थे, अपने-अपने भूपतियों द्वारा सुरक्षित थे और दृढ़ता से बद्ध-कक्ष रहते थे। वहाँ के नगरस्थान खूब रत्नों से युक्त एवं सब प्रकार कल्याणपूर्ण थे। अतएव वे उन जिनवरों के समान थे जिनके गर्भादि कल्याणक देवों द्वारा किये गये थे। ऐसे उस अंगदेश में चम्पापुर नाम का नगर रत्नों का निधान होने से रत्नाकर (सागर) के समान शोभायमान था। वहाँ अनेक देवालय थे और वह पण्डितों से मनोहर होता हुआ ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह बहुत से विमानों से युक्त तथा देवों से मनोहर देवेन्द्रपुरी ही हो।। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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