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अपभ्रंश भारती - 11-12 साधना की जाती है। विकृति से प्रकृति की ओर, विभाव से स्वभाव की ओर, अनित्यता से नित्यता की ओर, अस्थिरता से स्थिरता की ओर, प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर, भव-भ्रमण से मुक्त होने के लिए मोक्ष की ओर, योग से अयोग की ओर आने के लिए जो प्रयास किया जाता है वह साधना है। जहाँ यह साधना परिपूर्ण होती है वहीं साध्य की उपलब्धि होती है।
जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा अनन्त ज्ञान, दर्शन, शक्ति एवं आनन्दमय होते हुए भी कर्मावरण के कारण स्वभाव को प्राप्त नहीं कर पाता। वह स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा कर्मावरण को हटाकर/क्षयकर निजरूप को पा सकता है। सर्वप्रथम आत्मा और शरीरादि पर-पदार्थों की भिन्नता/स्व-पर-भेदविज्ञान से सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय द्वारा मन-वचन-काय को अशुभ प्रवृत्ति से हटाना और इनकी शुभ में प्रवृत्ति करना, ‘णो हरिसे णी कुज्जे' अर्थात् न हर्षित होना और न कपित होना की साधना द्वारा मन और पंचेन्द्रिय को नियन्त्रित करना। इनके विषयों को अनासक्त भाव से भोगना, देशविरति और सर्वविरति रूप-साधना द्वारा गुणस्थानों का आरोहण करते हुए वीतराग दशा अयोग-केवली-गुणस्थान तक को प्राप्त करना ही अयोग साधना है। यही योगों से निवृत्ति का उपाय है। - योगसार में कविवर जोइन्दु ने सरल बोधगम्य भाषा में आत्मसाधना द्वारा प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर गमन का उपाय बतलाया है जो योगदशा से अयोगी बनने का ही पथ है । उनके अनुसार इस दशा की प्राप्ति हेतु प्रथम आवश्यकता है - स्व-पर-भेदविज्ञान । यह तभी संभव है जब निजस्वरूप का ज्ञान हो साथ ही अपने से भिन्न पर के स्वरूप/स्वभाव को भी जाने जिससे दोनों की पृथकता का यथार्थ बोध हो। कविवर जोइन्दु ने आत्मा तथा उससे भिन्न देहादि पर-पदार्थों के स्वरूप से अवगत कराया है जो इस प्रकार है -
आत्मा शुद्ध, सचेतन, बुद्ध, केवलज्ञान स्वभावमय है। यह एकाकी इन्द्रियादि से रहित है। यह निश्चयनय से लोकप्रमाण तथा व्यवहारनय से शरीरप्रमाण है। शरीर और उससे सम्बन्धित सभी पदार्थ पर/अन्य हैं । वे आत्मा नहीं होते, आत्मा से भिन्न हैं ऐसा समझकर आत्मा को आत्मा पहचान। इस स्व-पर भेदविज्ञान का प्रयोजन पर-भावों को अपने से भिन्न जानना, मानना और उन्हें छोड़ना तथा आत्मा को आत्मा के द्वारा जानना। ऐसा करने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। वही आत्मज्ञाता होता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि साधक/मानव जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों तथा जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वों तथा नौ पदार्थों का ज्ञान करे, आत्मस्वरूप को समझे।' यही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति/ स्व-पर भेदविज्ञान में कारण है। . स्व-पर भेदविज्ञान जहाँ निज आत्मस्वरूप का बोधक है वहीं चित्तशुद्धि का भी कारण है। परम शुद्ध पवित्र भाव के ज्ञान के बिना, चित्तशुद्धि के अभाव में मूढ़ लोगों के व्रत, संयम, तप और मूलगुणों को मोक्ष (का कारण) नहीं कहा जा सकता -