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अपभ्रंश भारती
'राउलवेल' महाकवि रोडा द्वारा रचित नितान्त सार्थक नामवाली रचना है, जिसमें किसी सामन्त के रावल (राजकुल) की रमणियों का 46 पंक्तियों में मनभावन सौन्दर्य-चित्रण हुआ है । प्रत्येक नायिका का सौन्दर्य उसके नाम और परिवेश के अनुसार भिन्न रूप प्रस्तुत किया गया है । शृंगार-चित्रण की समस्त मर्यादाओं का कवि ने सदैव ध्यान रखा हैं । सात्विक श्रृंगारचित्रण के इससे सुन्दर चित्र अन्यत्र दुर्लभ हैं। नख-शिख वर्णनों के द्वारा कवि ने अपनी चित्रात्मक शैली का भी पूरा प्रयोग किया है। 'हूणि' नायिका के ताम्बूल-सेवित अधरों की लालिमा से मन भी रक्त (अनुरक्त) हो गया है। देखिए -
आखिहिं काजलु तरलउ दाजइ । (आ) छउ तुछउ फूल .....इ । अह (र) तंबोलें मणुमणु रातउ । सोइ देइ कवि आ न .... ।।
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उस नायिका के कानों के घडिवन (झुमके ) बड़े-बड़े चित्तकों के चित्त को भी विचलित कर देते हैं और उसके गले की कंठी का तो कहना ही क्या !
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हं घडिवन हं चिजे रेख । ते चितवंतहं आनिक ओख । कचि कांठी कांठिहि सोहइ । लोकहं चीदिहि मांडचि खोहइ ॥
दूसरी रमणी 'राउल', जो क्षत्रिय रमणी है, के नख-शिख-वर्णन में कवि का मन अत्यधिक रमा है। वही काव्य की नायिका भी है। कवि रोडा कहते हैं
एहु कानोडाउं का इसउ झांखा । वेसु अम्हाणउं ना जउ देखा | आउंडर जो राउ (लुसो ) हइ । थइ नउ सो एथु कोक्कु न मोहइ ॥ डहरउ आंखिहिं काजलु दीनउ । जो जाणइ सो थइ न उवावउ ॥ करडिम्ब अनु कांचडि अउ कानहिं । काई करेवउ सोहहिं आवहिं ॥ गलइ पुलुकी भ (विइ) कांठी । काम्बतणी सा हरइ न ... ॥ लांव झलांवर कांचूरात ( उ ) । को कुन देखतु करइ उमातउ ॥
हिं सो ऊंच कि अउराउल । तरुणा जोवन्त करइ सो बाउल ॥ वाहडि आउ सोम्बालउ दीहउ । उआथिन तहुं जणु चाहउ ॥ हाथहिं माहिअउ सुठु सोहहिं । थु खता जणु सयलइ चाहहिं ॥
अर्थात् उस अपूर्व सुन्दरी राउल का सौन्दर्य देखकर ऐसा कौन होगा जो मोहित न हो जाये ! उसकी आँखों का डहर (कम या थोड़ा) काजल, उसके कानों के करडिम और काँचड़ी नामक आभूषण, गले की कंठी, रक्त वर्ण का कंचुक, उन्मत्त कर देनेवाले उन्नत उरोज, सुन्दर परिधान, नूपुरों की मधुर ध्वनि और हंसगतिका उस राउल को देखकर समस्त क्षत्रियजन उसे पाने को लालायित हो उठते हैं । सच तो यह है कि उसके मुख- सौन्दर्य की छवि को देख स्वयं चन्द्रमा भी लज्जित हो उठता है ।