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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 97 'राउलवेल' की भाषा पुरानी दक्षिण कोसली है। जिस प्रकार 'उक्ति व्यक्ति-प्रकरण' की पुरानी कोसली है। उस पर समीपवर्ती तत्कालीन भाषाओं का कुछ प्रभाव अवश्य रहा होगा। 'सिद्धहेमचन्द्र' की भाषा से तुलना करने पर 'राउलवेल' की भाषा 11वीं शती की अपभ्रंशोत्तर भाषा का एक श्रेष्ठ उदाहरण कही जा सकती है। अपभ्रंश के विद्वानों को इसकी भाषा में अनेक चुनौतियाँ मिलेंगी। डॉ. भायाणी इसकी भाषा में अपभ्रंशोत्तर 6 विभिन्न क्षेत्रिय बोलियों का प्रतिनिधि देखते हैं, जो उचित नहीं लगता। वस्तुत: 46 पंक्तियों के इस शिलांकित काव्य की भाषा एक ही बोली में लिपिबद्ध की गई थी, जिसमें सीमावर्ती बोलियों के तत्त्व भी देखे जा सकते हैं। ___कहने का अभिप्राय यह है कि रोडा-कृत 'राउलवेल' अपभ्रंशोत्तर काल की अत्यधिक सुन्दर, कलात्मक एवं श्रृंगारपरक काव्य कृति है । इसकी सभी नायिकाएँ विभिन्न अलंकरणों से नख से शिखा तक सुसज्जित हैं । उनके नख-शिख सौन्दर्य की भावात्मक अभिव्यक्ति हेतु कवि ने उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षाओं की झड़ी-सी लगा दी है। अनेक प्राकृत उपमानों द्वारा कवि ने सौन्दर्यतत्त्व की व्यापकता को उजागर किया है। काव्य-कला एवं भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से यह काव्य किसी भी समकालीन शृंगार-काव्य से कम नहीं है । नायिकाओं द्वारा व्यवहत विभिन्न आभूषणों के वर्णन से तत्कालीन नारी की आभूषणप्रियता की ओर भी कवि ने इशारा किया है। आभूषणों की एक लम्बी सूची इस बात की द्योतक है । घडिवन (झुमके), कंठी, पाद-हंसिका (पैरों का धुंघरूदार आभूषण), करडिम (करपत्रिका - आरे के समान दाँतदार कर्णाभूषण), कांचड़ी (कानों का आभूषण), नूपुर, कप्पडि (कर्णाभरण), जलारी (जल्लार देश की कंठी), अमेअल (शेखरक - जूड़े के ऊपर बाँधी जानेवाली माला), वनवारो (पान के आकार का शिरोभूषण जो मस्तक पर लटकता रहता है), ताडर (पत्ते के आकार का एक कर्णाभरण), चन्द्रहाई (हाथ का आभूषण), मोतीहार, सोने के चूड़े, जवाघ (जवाघ - जौ के आकार की स्वर्ण गुरियों की माला) आदि अनेक आभूषण उन नायिकाओं के नख-शिख की शोभा बढ़ाते हैं। नारी-सौन्दर्य की विराटता को कवि ने अनेक उपमानों से सुशोभित किया है । चन्द्रमा, मुख सौन्दर्य के समक्ष तुच्छ लगता है। खोंप के ऊपर बँधा अमेअल (शेखरक) ऐसा लगता है मानो सूर्य को राहु ने ग्रसित किया हो। कंठ में पहना मंडन ऐसा लगता है मानो मदन के हृदय में 'बंभोअल' (ब्रह्मोत्पल) लगा हो। गले में तारिकाओं का हार ऐसा लगता है मानो नवग्रह ही हार में जड़ दिये गये हों। नायिका के पारडी (परार्द्र - एक प्रकार का मलमल) से ढके पीन पयोधर ऐसे लगते हैं मानो शरद्-जलद के मध्य चन्द्रमा हो, उसका ललाट अष्टमी के चाँद जैसा है, उसके दोनों कपोल चन्द्रमा से लगते हैं। उसके कानों के झुमके पूर्णिमा के दो चाँद जैसे लगते हैं, गले की एकावली ऐसी लगती है मानो चन्द्रमा की सेवा में 27 नक्षत्र बालाएँ नमस्कार करती हों, उसके पीन पयोधर स्वर्ण-निर्मित मंगलकलश जैसे अथवा कामदेव के घट-से लगते हैं और उसके रक्तोत्पल जैसे चरणों ने तो साक्षात् लक्ष्मी के सौन्दर्य का ही हरण कर लिया है। इस प्रकार उक्त काव्य में अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है।
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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