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अपभ्रंश भारती - 11-12
99 तीसरी रमणी टक्किणी है। उसके नख-शिख सौन्दर्य का तो कहना ही क्या? कवि रोडा कहते हैं कि उस अपूर्व सुन्दरी को आँखभरकर देखने के लिए लोग बार-बार अपनी आँखें मलने लगते हैं -
एही टक्किणी पइसति सोहइ। सा निहालि जणु मलमल चाहइ॥ चौथी रमणी गौड़ी के सौन्दर्य-चित्रण में कवि ने कमाल ही कर दिया। वे नायिका के बाह्य सौन्दर्य के साथ-साथ अन्त:सौन्दर्य की झलक प्रस्तुत करने में भी सफल रहे हैं -
खोपहि ऊपरं अम्वे अलकइसे। रवि जणि राहूं घेतले जइसे॥
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पारडीआं तरे थणहरु कइसउ। सरय जलयं विच चांदा जइसउ॥ सूतेर हारु रोमावलि कलिअ (उ)। जणि गांगहि जलु जउणहि मिलिअउ॥
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धवल कायउ ओढिअल कइसे। मुह ससि जोन्ह पसरिल जइसे॥
ऐसी गौड़ी नायिका जब राउल (राजकुल-राजभवन) में प्रवेश करती है तो वह 'राउल' मानो लक्ष्मी के द्वारा मंडित दिखता है। __ अन्तिम रमणी मालवीया का नख-शिख वर्णन कवि ने सशक्त गद्य में प्रस्तुत किया है । उस नायिका-मालवीया का उन्नत ललाट अष्टमी के चन्द्रमा की शोभा का भी हरण करता है। उसकी भौंहें ऐसी हैं मानो कामदेव ने धनुष चढ़ाया हो। इस अपूर्व सुन्दरी मालवीया को पाने के लिए प्रत्येक युवक लालायित है। उसके कानों के घडिवन (झुमके) ऐसे लगते हैं मानो पूर्णिमा के दो चाँद उसकी क्रोड में सुहाते हों। उस पीन-पयोधरा के वक्षस्थल ऐसे लगते हैं मानो दो स्वर्णकलश हों और उसके रक्तोत्पल पैरों की शोभाश्री ने तो जैसे लक्ष्मी की सुन्दरता का ही अपहरण कर लिया है।
इस प्रकार मर्यादित एवं सात्विक शृंगार-चित्रण के द्वारा कवि रोडा ने अपनी परिष्कृत अभिरुचि का ही परिचय दिया है। काव्य-कला की दृष्टि से यह भाषाकाव्य अतुलनीय है । इसमें कवि ने तत्कालीन लोक-अभिरुचि को भी अत्यन्त परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत किया है।
1. उक्तिव्यक्ति-प्रकरण, दामोदर पंडित, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी, बम्बई, 1945 ई. 2. हिन्दी अनुशीलन (डॉ. धीरेन्द्र वर्मा विशेषांक), भारतीय हिन्दी-परिषद्, प्रयाग, वर्ष 13, ___ अंक 1-2 (जन.-जून), 1960, पृष्ठ 21 3. भारतीय विद्या, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, जून-जुलाई, भाग-17, अंक 3-4, पृष्ठ
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