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अपभ्रंश भारती - 11-12
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बाह्याडम्बरों का तिरस्कार करते हुए कवि कहते हैं कि भावशुद्धि के बिना बाह्यवेष धारण करने मात्र से छुटकारा नहीं मिल सकता।"
चित्तशुद्धि के लिए देव-शास्त्र-गुरु की आराधना करनी चाहिए। धन को यथाशक्ति धार्मिक कार्यों में लगाना चाहिए। भगवान की स्तुति करनी चाहिए। महापुरुषों का जीवनचरित पढ़नासुनना चाहिए। उन्हीं का अभिनय करना चाहिए। धर्मस्थान पर लौकिक कार्य नहीं करना चाहिए। जो शुद्ध भाव से क्रोधादि कषायों से रहित हो भगवान की भक्ति करता है उसकी मनुष्य तो क्या देव, देवेन्द्र भी स्तुति करते हैं । आत्मशुद्धि के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने महान् गुणों की ओर भी ध्यान न देकर दोषों की ओर ध्यान दे तथा दूसरों के अल्प गुणों का भी प्रकाशन करे।10
कवि का मत है कि मिथ्यादर्शन के कारण ही जीव वस्तु के यथार्थस्वरूप को नहीं जान पाता और इसी कारण वह भवभ्रमण करता है, सम्यक्दर्शन होने पर ही वह मोक्ष-सुख को प्राप्त कर सकता है -
तिवदेसणरायंध निरिक्खहि जं ण अस्थि तं वत्थु विवक्खहि ते विवरीयदिट्ठि सिखसुक्खइ
पावहिहि सुमिणि विकहपच्चक्खइ।' सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक है। जो मन की मलिनता के कारण दूसरों के दोषों को ढूँढ़ता है, व्यर्थ कलह करता है, अपनी असत्य बात को भी सत्य और दूसरों की सत्य बात को भी असत्य सिद्ध करता है, विकृत वचन बोलता है, मद करता है, परस्त्री व परधन में आसक्ति रखता है, अधिक परिग्रह का संचय करता है, उसे कभी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।
2. कालस्वरूप कुलकम् - इसमें 32 पद्य हैं । कवि ने प्रारंभ में ही दुःखपूर्ण संसार में मनुष्य-जन्म की दुर्लभता और उसकी असफलता का कारण बताया है । वह कहते हैं कि मनुष्य मोहरूपी नींद में सो रहा है, उठकर मोक्षमार्ग में नहीं लगता, यदि सद्गुरु उसे जगाना चाहता है तो उसके वचन उसे अच्छे नहीं लगते।
मोहनिद्द जणु सुत्तु न जग्गइ, तिण उदिति सिवमग्गि न लग्गइ। जइ सुहत्थु कु वि गुरु जग्गावइ
तु वि तव्वयणु तासु नवि भावइ ।' गुरु के वचनों पर विश्वास कर राग-द्वेष तथा मोह का त्याग करनेवाले को ही सिद्ध-सुख की प्राप्ति होती है।