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अपभ्रंश भारती - 11-12
परमत्थि ण ते सुत्त वि जग्गहि सुगुरु वयणु जे उठेवि लग्गहि। रागद्वेष मोह वि जे गंजहि
सिद्धिपुरन्धिते निच्छइ भुंजहि॥4 गुरु का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कवि कहते हैं कि जिस पर सद्गुरु की कृपा हो गयी और जिसके मन में पंचपरमेष्ठी का वास है, उसका यमराज भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
जो जणु सुहगुरु दिट्ठिहि दिट्ठउ, तसु किर काइ कारइ जमु रुट्ठउ। जसु परमेट्ठि मंतु मणि निवसइ,
सो दुहुमज्झि कयावि न पइसइ। कवि ने कुगुरु-सुगुरु का अन्तर बताते हुए सद्गुरु की पहचान भी बतायी है । कुगुरु कष्ट का कारण है, जो बुद्धिमान सद्गुरु के स्वरूप को जानता है वही परमपद का अधिकारी है।
कुगुरु सुगुरु सम दीसहि बाहिरि। यदि जो कुगुरु सु अंतरु बाहिरि। जो तसु अंतरु करइ वियक्खणु।
सो परमप्पउ लहइ सलक्खणु।" सच्चा गुरु लोभ से रहित होता है । लौहयुक्त पोत के समान लोभी गुरु भी शिष्य को संसारसागर से पार नहीं कर सकता अपितु वह आपत्ति का ही कारण होता है। यथा -
लौहिउ जडिउ पोउ सु फुट्टइ चुंबकुजहि पहाणु किव वट्टइ। नेय समुद्दह पारु सु पावइ
अंतशील तसु आवय आवइ॥7 सद्गुरु की प्राप्ति हो जाने पर जो उसके वचनों पर श्रद्धान कर उसका ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करता है, वह अवश्य ही शिवरमणी से रमण करने लगता है, पुनः संसार में लौटकर नहीं आता।
संसार के कारण राग-द्वेष और मोह का त्याग किये बिना बाह्य वेष धारण करने तथा केशलुंच करने पर भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः सद्गुरु के वचनों पर श्रद्धान कर राग-द्वेषादि आन्तरिक मल को दूर करने का ही प्रयास करना चाहिए।
वहु य लोय लुंचिय सिर दीसहिं । पर रागद्दोसहि सहुँ विलसहिं । पढहि, गुणहिं सत्थइ वक्खाणहि परिपरमत्थु कित्थु सुण जाणहि।