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अपभ्रंश भारती - 11-12
भास्वांस्ततः समुदगाज्जिनदत्तसूरि - भव्यारविन्दचयबोधविधानदक्षः। गावः स्फुरन्ति विधिमार्गविकासनेक -
तानास्तमोविदतानप्रवणा यदीया। वि.सं. 1293 में जिनपालगणि ने आपकी स्तुति निम्न प्रकार की है -
जिनदत्त इति श्रीमान् सूरिस्तत्पदभूषणः
जज्ञेस ज्ञान माणिक्यरोहणो विधिपोषणः।' खरतरगच्छपट्टावली में कवि के स्वर्गवास का वर्णन भी निम्न प्रकार प्रस्तुत किया गया है - 'अथैवंविधाः क्षत्रियब्राह्मणादिकुलीनलक्ष श्राद्ध प्रतिबोधकाः जलभूमोपरि कम्बलास्तरणादि प्रकारेण पञ्चनदीसाधकाः संदेहदोहावतसाधनेक ग्रन्थविधायकाः परकायष्वेशिन्यादि विविधविधासम्पन्ना परोपकारकरिणः परमयशः सौभाग्यधारिणः श्रीखरतरगच्छनायकाः महाप्रभावकाः श्रीजिनदत्तसूरायः संवत् 1211 अषाढ़ सुदि एकादश्यां अजमेरुनगरेऽनशनं कृत्वा स्वर्गं गताः ।।48।
स्पष्ट है कि आचार्य जिनदत्तसूरि विद्या और तन्त्र-मन्त्र आदि के ज्ञाता थे और उन्होंने वि.सं. 1211 में समाधिमरण द्वारा अजमेर में प्राण त्याग दिया। रचनाएँ
कवि की अबतक उपलब्ध रचनाएँ हैं - 1. उपदेश रासरसायन, 2. कालस्वरूपकुलकम्, 3. चर्चरी। ___ 1. उपदेश रासरसायन - उपदेश रासरसायन में 80 पद्य हैं । कवि ने इन पद्यों में आत्मसाधना का निरूपण किया है। आरम्भ में ही बताया है कि यह मनुष्य जन्म बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है और राग-द्वेष तथा मोह ही भवभ्रमण का कारण है। आत्मसाधना के लिए गुरु का अवलम्बन लेकर राग-द्वेष तथा मोह से मुक्त होना आवश्यक है। गुरु ही ऐसा पोत है जो स्वयं तो संसारसमुद्र से तरता है, दूसरों को भी तार देता है। संसार-तरण के लिए कवि ने गुरु को प्रमुख साधन माना है। वे कहते हैं -
गुरुपवहणु निप्पुण्णि न लब्भइ लिणि पवहि जणु पडियउ कुब्भइ। सा संसार समुद्दि पइट्ठी
जहि सुक्खह वत्ता वि पणट्ठी॥ मन तथा इन्द्रियों की चंचलता ही संसार-भ्रमण का कारण है, जो मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता उसे कभी मुक्ति नहीं मिल सकती।
तसु किव होइ सुनिव्वउ संगम अथिरु जि जिव किक्काण तुरंगमु। कुप्पहि पडद न पगि विलग्गड़, वायह मरिउ जहिच्छइ वग्गइ।