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अपभ्रंश भारती - 9-10
83 छंद सं.-3 के प्रथम चरण में आए हुए 'पच्चाएसि' की संस्कृत व्याख्या संस्कृत-टीकाओं में 'प्रतीच्यां' करके की गई है। डॉ. भायाणी ने ग्रंथ के शब्दकोश में इसे 'प्रत्यग् देश' से निष्पन्न किया है । वास्तव में 'पच्चाएस' पश्चात्+देश है । पच्चा' और 'पच्छा' दोनों 'पश्चात्' के प्राकृतरूप हैं और दोनों का अर्थ - 'पश्चिम दिशा' है। इसी प्रकार 'एस' और 'देस' दोनों देश' के प्राकृत रूप है। अत: पच्चाएसि' का अर्थ होगा- 'पश्चिम दिशा के देश में। इसमें आगे 'मिच्छ देसोत्थि' का उल्लेख है, जो कवि का निवास प्रदेश है। टीकाकारों ने इसका अर्थ 'म्लेच्छ नामादेशो' किया है। 'प्राकृत शब्द महार्णव' में भी 'मिच्छ' का अर्थ म्लेच्छ' ही दिया हुआ है किन्तु इस म्लेच्छ देश की वास्तविक स्थिति ज्ञात नहीं है। वैसे यह प्रसिद्ध है कि आर्यजन जिस प्रदेश का परित्याग कर देते थे, वह म्लेच्छ देश कहलाता था। जैसे मनुस्मृति में म्लेच्छ देश को यज्ञिय देश से परे बताया गया है और अमरकोश के प्रमाण से स्पष्ट है कि देश का पश्चिमोत्तर भाग उदीच्य और प्रत्यन्त भाग म्लेच्छ देश कहलाता था। अत: यह अनुमान स्वाभाविक है कि 'मिच्छ' या 'म्लेच्छ' देश से कवि का आशय सिन्धु तटवर्ती भू-भाग (वर्तमान पश्चिमी पाकिस्तान में) से रहा है। मेरे विचार से म्लेच्छ देश की संगति 'मुल्तान' से है, क्योंकि मुल्तान और उसके आस-पास का इलाका भी इसका निकटवर्ती होने से म्लेच्छ देश ही कहलाता रहा है। जैसा
तंत्र' के निम्न श्लोक से प्रतीत होता है- 'मुल्तान देशो देवेशि! महाम्लेच्छ परायणः।
परिचय-छंद की अगली पंक्ति का अर्थ संस्कृत-टीकाओं में ऐसे किया गया है- 'तत्र विषये आरद्दो देशीत्वात् तंतुवायो मीरसेनाख्यः संभूतः उत्पन्नः।' आचार्य द्विवेदीजी ने इस अर्थ पर ठीक ही आपत्ति की है कि 'मीरसेणस्स' षष्ठ्यन्त पद है, उसकी व्याख्या 'मीरसेनाख्यः' प्रथमान्त पद के रूप में नहीं होनी चाहिए। अतः द्विवेदीजी ने 'आरद्द मीरसेणस्स' की संगति 'मीर सेन का आरद्द' (मीर सेन के गृहागत) अर्थ करके लगाई है, किन्तु यह संगति संतोषप्रद नहीं है। मेरे विचार में चरण का सीधा अर्थ होगा -'उस विषय(प्रदेश) में आरद्द हुआ, जो मीर सेन का (पुत्र) था।'-'आरद्द' का अर्थ संस्कृत-टीकाओं में जो 'देशीत्वात् तंतुवायः' किया गया है, वह निराधार है। आगे कवि ने छंद-19 में अपने को 'कोलिय' कहा है, संभवतः इसी के आधार पर 'आरद्द' के इस अर्थ की कल्पना इन टीकाओं में कर ली गई है।
द्विवेदीजी ने गृह-आगत अर्थ हेतु 'आरद्द' को 'आरद्ध' शब्द माना है, किन्तु यह बात समझ में नहीं आती कि 'आरद्ध' (गृह-आगत) जो देशज शब्द है, उसे आचार्य जी ने 'आरद्द' कैसे माना है? फिर भी यदि आरद्द' शब्द को 'आरद्ध' मान लिया जाय, तो गृह-आगत आदि अर्थों के अतिरिक्त 'महण्णवो' में इसका अन्य अर्थ - आरब्ध, प्रारब्ध भी मिलता है । अत: इस आरद्ध शब्द के अनुसार तीसरे छंद की दूसरी पंक्ति का एक अर्थ यह भी हो सकता है - 'उस प्रदेश में मीरसेन का भाग्योदय हुआ। डॉ. जैदी ने 'आरद्द' शब्द को अरबी भाषा के 'अरद्द' शब्द से बना होने की संभावना व्यक्त की है। अरबी शब्द-कोश में 'आरद्द का अर्थ - लाभप्रद तथा उपयोगी दिया हुआ है । मीरसेन को लाभ पहुँचानेवाला अथवा मीरसेन का लाभ उसका पुत्र ही हो सकता है। अत: यहाँ आरद्द शब्द का अर्थ 'पुत्र' किया जा सकता है, जो संगतिपरक है।