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अपभ्रंश भारती 9-10
केवल एक काण्ड की बीसों सन्धियों में पचीस से ऊपर इस तरह की लोक-सूक्तियाँ हैं निश्चित ही इससे कवि की लोक निरीक्षण शक्ति का पता चलता है ।
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विषादमग्न पवनञ्जय का कातर - विरह विलाप परवर्ती हिन्दी काव्य की पूर्ववर्ती दृष्टि के रूप में देखा जा सकता है। वह पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों से अपनी प्रेयसी के बारे में पूछता है
पवण्ञ्जओ
कि
पडिवक्ख- सउ
काणण
पइसरइ
विसाय- रउ
पुच्छइ 'अहाँ सरवण दिट्ठ धण दल कोमल रतुप्पल अहाँ राजहंस
चलण हंसाहिवइ
कहँ कहि मि दिट्ठ जइ हंस- गइ अहीँ दीहरणहर मया हिव कहें कहि मि णियम्विणि दिट्ठ जइ अहाँ कुम्भि कुम्भ-सारिच्छ-थण केत्तहँ वि दिट्ठ सइ सुद्ध-मण अहीँ - अहाँ असोय पल्लविय - पाणि कहिँ गय पर हुऍ पर हूय-वाणि अहीँ रुन्द चन्द चन्दाणणिय
मिग कहि मि दिट्ट मिग-लोयणिय
अहाँ सिहि कलाव-सण्णिह - चिहुर
ण णिहालिय कहि मि विरह विहुर । (19.13.2 )
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अरे सरोवर ! क्या तुमने रक्त कमल की तरह चरणोंवाली मेरी धन्या देखी । हे हंसराज ! तुमने यदि मेरी हंसगामिनी को देखा हो तो बताओ ! हे विशाल नेत्रोंवाले मृगराज, तुमने उस नितम्बिनी को देखा हो बताओ ? हे गजराज, यदि तुमने गजकुम्भ स्तनी शुद्ध मनवाली मेरी प्रिया को देखा हो तो बताओ-बताओ वह अशोक किसलय जैसे हाथोंवाली कहाँ है ? अरे वक्र चन्द्र ! तुम बताओ वह चन्द्रमुखी कहाँ है ? अरे मृग, क्या तुमने मेरी मृगनयनी को देखा है ? अरे मयूर, तुम्हारे कलाप की तरह बालोंवाली मेरी प्रिया अर्थात् उस विरह-विधुरा को तुमने देखा क्या ?
ध्यातव्य है यह विरह-वर्णन अपभ्रंश का एक लोक महाकवि कर रहा है जो मानता है कि कविता से लोक में स्थिर कीर्ति पायी जा सकती है. आत्मश्लाघा नहीं करता और आत्म मुग्ध भी यह कवि कम है जो लोक के बड़प्पन का सूचक है। इतना ही नहीं वे यह भी स्वीकार करते हैं कि रामायण के माध्यम से मैं अपने आपको बता रहा हूँ- या प्रकट कर रहा हूँ
पुणु अप्पाणउपाय उमि रामायण कावें (1.1.19)