SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती - 9-10 15 की प्रारंभिक पृष्ठभूमि चंद्रनखा का अपमान है । रावण इस अपमान से क्रोधित हो उठता है तथा प्रतिशोधवश अवलोकिनी विद्या द्वारा सीता का अपहरण कर लेता है। सीता नगर में प्रवेश नहीं करती है अत: उन्हें नंदनवन में ठहरा दिया जाता है। सीता की खोज में सहायता हेत सुग्रीव की सहायता लेते हैं । राम सुग्रीव की पत्नी का उद्धार करते हैं । सुग्रीव हनुमान को संदेश देकर भेजते हैं। सीता संदेश प्राप्त करके प्रतिज्ञानुसार अन्न ग्रहण करती हैं । सीता प्राप्ति हेतु राम-रावण युद्ध होता है। रावण मारा जाता है। राम दिग्विजय करके वापस अयोध्या लौटते हैं। राम लोकापवाद के भय से सीता का परित्याग कर देते हैं। सीता अपने मामा वज्रजंघ के साथ वन चली जाती हैं। वन में सीता लवण तथा कुश नामक दो पुत्रों को जन्म देती हैं। बड़े होकर वे राम के साथ युद्ध करते हैं । यह ज्ञात होने पर कि ये मेरे ही पुत्र हैं राम उन्हें आलिंगनबद्ध करते हैं। सीता अग्निपरीक्षा देकर दीक्षा ले लेती हैं। लक्ष्मण की मृत्यु होने पर राम लक्ष्मण के मृत शरीर को कंधों पर डालकर छ: माह तक भटकते रहते हैं । अन्ततः आत्मबोध होने पर जैनधर्म में दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। स्वयंभू की रामकथा पूर्ववर्ती रामकथा से समानता के साथ-साथ भिन्नता भी रखती है वैसे भिन्नता होना स्वाभाविक भी है क्योंकि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है कि यह कथा णामावलियनिबद्ध आयरिय परागयं' है अत: यदि प्रत्येक रचनाकार आचार्य परम्परा से आयी कथा में अपनी इच्छानुसार किंचित् भी परिवर्तन करेंगे तो स्वाभाविक है कि मूल कथा का रूप विकृत हो जायेगा। परन्तु इस प्रसंग को विस्तार न देकर उन तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि स्वयंभू ने 'आचार्य परम्परा से आगत' कथा को शब्दशः ग्रहण नहीं किया वरन् उसमें कुछ नवीन तथ्यों की उद्भावना की तथा कतिपय स्थलों को बहिष्कृत भी किया। स्वयंभू अपने ग्रंथ के प्रारम्भ में प्रथम तीर्थंकर स्वामी ऋषभ की अभ्यर्थना करते हैं। विमलसूरि तथा रविषेण ने अपने काव्य के आरम्भ में अन्तिम तीर्थंकर स्वामी महावीर की प्रार्थना की है। पूर्ववर्ती रामकाव्यों में चार वंशों की उत्पत्ति का वर्णन है जबकि स्वयंभू ने दो वंशों - इक्ष्वाकु तथा विद्याधर वंश का ही उल्लेख किया है। रविषेण के पद्मचरित में हनुमान की सास का नाम हृदयवेगा है जबकि स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में मनोवेगा नाम है। स्वयंभू ने रविषेणाचार्य की भाँति प्रेम तथा रति सम्बन्धों का अश्लील वर्णन नहीं किया है तथा न ही इस प्रसंग को अनावश्यक विस्तार दिया है। नारद-सीता प्रसंग में भी स्वयंभू विमल तथा रविषेण की अपेक्षा भिन्न मत प्रतिपादित करते हैं। स्वयंभू के अनुसार सीता नारद का प्रतिबिम्ब दर्पण में देखकर मूर्च्छित हो जाती है। जबकि विमल तथा रविषेण के अनुसार सीता नारद को अपने कक्ष में आते देखकर भयभीत होकर छिप जाती हैं। यहाँ पर स्वयंभू की कल्पना अधिक कोमल तथा हृदयस्पर्शी है । सीता की सुकुमारता का सुंदर चित्रण है । सीता के इस व्यवहार से नारद स्वयं को अपमानित अनुभव करते हैं तथा सीता से प्रतिशोध लेने के लिये एक षड्यंत्र करते हैं। स्वयंभू के रामकाव्य में नारद का चित्र इस प्रसंग में अधिक स्वाभाविक लगता है। स्वयंभू के नारद पूर्ववर्ती रामकाव्यों के नारद की
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy