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________________ 13 अपभ्रंश भारती - 9-10 'पउमचरिउ' का प्रारम्भ स्वयंभू प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति से करते हैं उसहस्स मह णव-कमल-कोमल - मवहर- वर- वहल - कीर्ति सोहिल्लं । पाय-कमलं स- सुरासुर वंदिय सिरसा ॥ 1.1 अर्थात् नवकमलों की भाँति कोमल, सुन्दर तथा उत्तम कांति से शोभित तथा सुर-असुर द्वारा वंदित श्री ऋषभ भगवान के चरणकमलों को मैं सिर से नमन करता हूँ । - स्वयंभू द्वारा वर्णित रामकथा का स्वरूप इस प्रकार है विपुलाचल के शिखर पर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण विराजमान होता है । राजा श्रेणिक प्रश्न करते हैं तथा गौतम गणधर उसका उत्तर देते हैं । स्वयंभू के अनुसार भारत में दो वंश थे - इक्ष्वाकु वंश अर्थात् मानव वंश और विद्याधर वंश । विद्याधर वंश की परम्परा में ही आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ राजा हुये। उनके पश्चात् उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती की दीर्घ परम्परा में सगर चक्रवर्ती सम्राट हुये। उन्होंने विद्याधर वंशीय राजा सहस्राक्ष की कन्या तिलककेशी से विवाह किया। राजा सहस्राक्ष राजा मेघवाहन को मार डालता है क्योंकि उसे अपने पिता सुलोचन के बैर का बदला उसे लेना था । इस युद्ध में उसका पुत्र तोयदवाहन जीवित बच जाता है वह अजित जिनेन्द्र के समवशरण में जाकर शरण लेता है जहाँ इंद्र उसे अभयदान देते हैं । अजितनाथ की शरण में पहुँचने के उपरांत सगर के भाई भीम - सुभीम पूर्वजन्म के स्नेह के कारण उसका आलिंगन करते हैं तथा उसे राक्षसविद्या, लंका तथा पाताल लंका प्रदान करते हैं। तोयदवाहन के लंकापुरी में प्रतिष्ठित होने के साथ ही राक्षसवंश की परम्परा की उत्पत्ति होती है। 25 इसी परम्परा में कालांतर में रावण का जन्म होता है। रावण के जन्म के समय राक्षसवंश की स्थिति अत्यंत शोचनीय थी । तोयदवाहन की परम्परा में आगे चलकर कीर्तिधवल का समय आता है, कीर्तिधवल ने अपनी पत्नी के भाई श्रीकण्ठ को वानरद्वीप भेंट में दिया था जिससे वानरवंश का विकास हुआ। इस संदर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है कि 'वानर ' चूंकि श्रीकण्ठ के कुलचिह्न थे अतः इससे वानरवंश का विकास माना जाता है। वानरवंश में स्वयंभू ने हनुमान के पिता पवनंजय की उत्पत्ति, विवाह तथा पराक्रम का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। स्वयंभू ने पवनंजय तथा अंजना के प्रेमालाप तथा रति सम्बंधों को अत्यंत संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। राक्षसवंश में वानरवंश में यद्यपि दीर्घकाल से मधुर सम्बन्ध थे परन्तु वानरवंशीय राजा विद्यामंदिर की पुत्री श्रीमाला के स्वयंवर को लेकर दोनों वंशों के मध्य सम्बन्ध कटु हो जाते हैं। इस विवाद में राक्षसवंश पराजित होता है । रावण के पिता का नाम रत्नाश्रव तथा माँ का नाम कैकेशी था । रावण एक दिन खेल-खेल में भंडारगृह में जाकर तोयदवाहन का नवग्रह हार उठा लेता है जिसमें उसके मुख के दस प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं । इसी कारण रावण का नाम दशानन पड़ जाता है। रावण ने राक्षसवंश
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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