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अपभ्रंश भारती
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अभिहित किया है परंतु 'पउमचरिउ' के अतिरिक्त स्वयंभू ने अपनी इस रामकथा हेतु अन्य नामों का भी उल्लेख किया है पोमचरिय 's, रामायणपुराण", रामायण 7, रामएवचरिय 18, रामचरिय, रामायणभाव 20, राघवचरिउ 21, रामकहा 22। 'पउमचरिउ' की सबसे प्राचीन प्रति भंडारकर इंस्टीट्यूट, पूना में है जो 1564 ई. में ग्वालियर में प्रतिलिपि करके समाप्त हुई थी तथा दूसरी जयपुर में है । 23 इसमें पज्झटिका छंद की आठ-आठ अद्धालियों के उपरांत दोहा या घत्ता छंद रखने का नियम प्राप्त होता है ।
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स्वयंभू 'पउमचरिउ' के प्रारम्भ में ही कहते हैं कि उन्होंने इस रामकथा को लिखने की प्रेरणा आचार्य परम्परा से ली है तथा इस आचार्य परम्परा में स्वयंभू रविषेणाचार्य का उल्लेख करते हैं तथा स्वीकारते हैं कि उनका पउमचरिउ रविषेण के ' पद्मचरित' के आधार पर रचित है
वद्धमाण-मुह - कुहर विणिग्गय। राम कहा- णइ एह कमागय ॥
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पच्छर इन्द्रभूइ आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकि एं ॥ पुणु पहवे संसाराराएं । कित्तिहरेण अणुत्तरवाएं ॥
पुणु रविषेणायरिय पसाएं। बुद्धिऍ अवगहिय कइराएं ॥ 1,2 प.च.
अर्थात् वर्धमान (तीर्थंकर महावीर) के मुखरूपी कंदरा से, यह रामकथारूपी नदी क्रम से प्रवाहित हो रही है। यह शोभित रामकथा तदन्तर इंद्रभूति आचार्य को, फिर गुणों से विभूषित धर्माचार्य को, फिर संसार से विरक्त प्रभवाचार्य को प्राप्त हुई। इसके पश्चात् आचार्य रविषेण के प्रसाद से कविराज ने इसका स्वबुद्धि से अवगाहन किया ।
कथा प्रारम्भ करने की रीति विमलसूरि, रविषेण तथा स्वयंभू तीनों की ही एक जैसी है।
आचार्य - परम्परा के सम्बन्ध में एक तथ्य उल्लेखनीय है कि विमलसूरि का स्मरण न तो रविषेण ने किया है और न ही स्वयंभू ने । यहाँ पर आश्चर्य होता है कि जिस कवि की परम्परा का अनुकरण किया उसका ही स्तवन नहीं किया। जबकि आचार्य - परम्परा का उल्लेख लगभग तयुगीन सभी ग्रंथों में प्राप्त होता है। खैर, ये दोनों ही कवि स्वयंभू के पूर्ववर्ती कवि हैं तथा स्वयंभू ने इन दोनों की कथाओं को कतिपय परिवर्तन के साथ ग्रहण किया है ।
स्वयंभू की 'पउमचरिउ' की रामकथा का प्रारम्भ कुछ लोकप्रचलित शंकाओं के साथ होता है । मगध नरेश श्रेणिक प्रश्न करते हैं24 तथा गौतम गणधर उसका उत्तर देते हैं। गौतम गणधर सर्वप्रथम सृष्टि की रचना का वर्णन करते हैं तदंतर युगों, कुलकरों, तीर्थंकरों, वंशों की उत्पत्ति बताते हैं फिर राक्षसों, वानरों तथा विद्याधरों की लीलाओं का वर्णन करते हैं फिर इक्ष्वाकु वंश का प्रारम्भ तथा इसी वंश में राजा दशरथ का उदय तथा कैकेयी को दिये गये वरदान का उल्लेख करते हैं फिर राजा जनक तथा उनके पुत्र भामंडल की उत्पत्ति तथा भामंडल के विद्याधर द्वारा अपहृत होने की चर्चा करते हैं । अन्त में दशरथसुत राम की उत्पत्ति के साथ कथा विस्तार से प्रारम्भ होती है।