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अपभ्रंश भारती - 9-10
अपभ्रंश भारती - 9-10
अक्टूबर - 197
अक्टूबर - 1997, अक्टूबर - 1998
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जैन अपभ्रंश साहित्य
- डॉ. नीलम जैन
'अपभ्रंश' साहित्यिक भाषा के गौरवशाली पद पर छठी शताब्दी में आसीन हुई। इससे पूर्व भरत के नाट्य शास्त्र में (द्वितीय ई. शती), विमलसूरि के पउमचरिय (3 ई.श.) में पादलिप्तसूरि के तरंगवइकहा आदि में अपभ्रंश के शब्दों का कथंचित् व्यवहार पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है अपभ्रंश में प्रथम शती से रचनाएँ होती रही हैं। महत्वपूर्ण साहित्य 8वीं शती से 13-14वीं शती तक रचा गया। इसी कारण अपभ्रंश के 9वीं से 13वीं शताब्दी तक के युग को डॉ. हरिवंश कोछड़ ने 'समृद्धयुग' एवं डॉ. राजनारायण पाण्डेय ने 'स्वर्णयुग' माना है। अपभ्रंश की एक अंतिम रचना है भगवतीदास रचित 'मृगांक लेखाचरित' (16 ई. शती)।
अपभ्रंश साहित्य की समृद्धि का प्रमुख स्रोत जैन आचार्यों के द्वारा रची गई कृतियां ही हैं। इसका ज्ञान पिछले दो-तीन दशकों में श्री चमनलाल डाह्याभाई दलाल, मुनि जिनविजय, प्रो. हीरालाल जैन, डॉ. परशुराम लक्ष्मण वैद्य, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याये, म.प. हरप्रसाद शास्त्री आदि विद्वानों के अथक परिश्रमस्वरूप प्राप्त हुआ। अपभ्रंश भाषा के अध्ययन की समस्या एवं धार्मिक परम्परा के फलस्वरूप इस भाषा का साहित्य जैन-भण्डारों में छिपा पड़ा रहा। सम्भवतः इसी कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में जैन अपभ्रंश साहित्य को धार्मिक उपदेश मात्र होने से विशेष महत्व नहीं दिया। आचार्य द्विवेदी ने इसका तर्कपूर्ण खंडन कर इसमें सुन्दर काव्यरूप की उपलब्धि होने से इन्हें स्वीकार किया है - "जैन अपभ्रंश-चरितकाव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय के मुहर लगाने मात्र