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________________ अपभ्रंश भारती 9-10 से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य-क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते । ... यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुसेगा । 124 - इस अपभ्रंश साहित्य की विपुलता का ज्ञान डॉ. नामवर सिंह के इस कथन से पुष्ट होता है - "यदि एक ओर इसमें जैन मुनियों के चिन्तन का चिन्तामणि है तो दूसरी ओर बौद्ध सिद्धों की सहज साधना की सिद्धि भी है। यदि एक ओर धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोक-जीवन से उत्पन्न होनेवाले ऐहिक - रस का रागरंजित अनुकथन है । यदि यह साहित्य नाना शलाका पुरुषों के उदात्त जीवन-चरित से सम्पन्न है तो सामान्य वणिक् पुत्रों के दुःखसुख की कहानी से भी परिपूर्ण है। तीर्थंकरों की भावोच्छ्वसित स्तुतियों, अनुभव-भरी सूक्तियों, रहस्यमयी अनुभूतियों वैभव-विलास की झांकियों आदि के साथ ही उन्मुक्त वन्य जीवन की शौर्य-स्नेहसिक्त गाथाओं के विविध चित्रों से अपभ्रंश साहित्य की विशाल चित्रशाला सुशोभित है। स्वयंभू जैसे महाकवि के हाथों से इसका बीजारोपण हुआ : पुष्पदंत, धनपाल, हरिभद्र, जोइन्दु, रामसिंह, देवसेन, कनकामर, हेमचन्द्र, सोमप्रभ, जिनप्रभ, जिनदत्त, जिनपद्म, विनयचन्द्र, राजशेखर, शालिभद्र, अब्दुल रहमान, सरह और कण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया और अंतिम दिनों में भी इस साहित्य को यशःकीर्ति और रइधू जैसे सर्वतोमुखी प्रतिभावाले महाकवियों का सम्बल प्राप्त हुआ । अपभ्रंश साहित्य को सुरक्षित रखने का श्रेय जैन भंडारों को है। जैन धर्मानुसार किसी ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति किसी भी जैन भंडार में स्वाध्याय के लिए दान देना धर्म-लाभ समझा जाता रहा है। यही कारण है कि अनेकानेक विदेशी एवं देशी विद्वानों के सत्प्रयत्नों के फलस्वरूप पाटण, कारंजा, जैसलमेर, अहमदाबाद आदि के जैन भण्डारों से बहुमूल्य ग्रंथ प्रकाश में आये हैं एवं अनेक ग्रंथ अभी तक अविज्ञात हैं । जैनाचार्यों ने अपभ्रंश के महान् साहित्य का प्रणयन किया है । इसका कार्यक्षेत्र पश्चिमी भारत, विदर्भ, गुजरात, राजस्थान तथा दक्षिण भारत के प्रदेश रहे हैं। विद्वानों के कथनानुसार श्रावकों के अनुरोध पर जैन आचार्यों ने अपभ्रंश में रचना की। ये श्रावक देशी भाषा से ही परिचित थे । अतः जैन अपभ्रंश साहित्य में जहाँ स्थान वैभिन्न्य के संकेत मिलते हैं वहाँ विषय और काव्यरूपों में भी विविधता दर्शनीय है। जैनाचार्यों द्वारा लिखे गये साहित्य में महापुराण, पुराण, चरितकाव्य, कथाग्रंथ, रासग्रंथ, उपदेशात्मक ग्रंथ, स्तोत्र आदि विविध विषयात्मक ग्रंथ प्राप्य हैं। महापुराण में पुष्पदंत का तिसट्ठिमहापुरिस; पुराण चरितकाव्यों में स्वयंभू के पउमचरिउ, रिट्ठनेमिचरिउ, पुष्पदंत के णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, मुनि कनकामर का करकंडचरिउ आदि उल्लेखनीय हैं। कथा - ग्रंथों में ( धनपालकृत) भविसयत्तकहा, ( अमरकीर्ति कृत), छक्कम्मोकएस (षट्कर्मोपदेश), पज्जुणकहा आदि विशेष महत्व के हैं । रासो ग्रंथों में उपदेश रसायन (जिनदत्तसूरि), नेमिरास (जिनप्रभ), बाहुबलिरास, जंबूस्वामीरास आदि का नाम लिया जा सकता है।
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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