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________________ 122 दुवई अपभ्रंश भारती - 9-10 उज्जेणिहिँ सिप्पा णाम णइ अत्थि पुणु रायहो भासइ अभयरुइ णियभवणकिलेसकह ।। उज्जेणिहिँ सिप्पा णइ अस्थि सच्छ गंभीरदह ॥ध्रुवकम्॥ - तडतरुपडियकुसुमपुंजुज्जल पवणवसा चलंतिया । दीसइ पंचवण्ण णं साडी महिमहिलहि घुलंतिया ॥ जलकीलंततरुणिघणथणजुयवियलियघुसिणपिंजरा । वायाहयविसालकल्लोलगलत्थियमत्तकुंजरा ॥ कच्छवमच्छपुच्छसंघट्टविहट्टियसिप्पिसंपुडा । कूलपडंतधवलमुत्ताहलजललवसित्तफणिफडा ॥ णहंतणरिंदणारितणुभूसणकिरणारुणियपाणिया । सारसचासभासकारंडविहंडिरहंसमाणिया ॥ परिघोलिरतरंगरंगंतरमंततरंतणरवरा । पविमलकमलपरिमलासायणरुंजियभमिरमहुयरा ॥ मंठुवयंठएसतवसंठियतावसवासमणहरा । सीयलजलसमीरणासासियणियरकुरंगवणयरा ॥ जुज्झिरमयरकरिकरुप्फालणतसियतडत्थवाणरा । पडियफुलिंगवारिपुण्णाणणचाययणियरदिहियरा ॥ खयचिक्खिल्लखोल्लखणिखोलिरलोलिरकोलसंकुला। जसहरचरिउ 3.1 फिर अभयरुचि अपने भवभ्रमण के क्लेशों की कथा राजा मारिदत्त को सुनाने लगा। उसने कहा कि उज्जैनी के समीप स्वच्छ और गम्भीर द्रहों सहित सिप्रा नाम की नदी है। वह अपने तटवर्ती वृक्षों से गिरनेवाले पुष्पों के समूहों से उज्ज्वल है, तथा पवन के कारण तरंगों से चलायमान है। इस कारण वह ऐसी दिखाई देती है मानो पृथ्वीरूपी महिला की लहलहाती हुई । पचरंगी साड़ी हो। जलक्रीड़ा करती हुई युवती स्त्रियों के सघन स्तनयुगलों से धुलकर गिरे हुए केशर से वह नदी लाल हो रही है, तथा वायु के थपेड़ों से उठनेवाली विशाल कल्लोलों द्वारा वहाँ मदोन्मत्त हाथी उत्प्रेरित हो रहे हैं। वहाँ कछुओं और मछलियों की पूँछों के संगठन से सीपों के सम्पुट विघटित हो रहे हैं, और तटपर पड़ते हुए श्वेत मुक्ताफलों सहित जलकणों द्वारा सर्पो के फण सींचे जा रहे हैं। वहाँ का पानी स्नान करती हुई रानियों के शरीर के भूषणों की किरणों से लाल वर्ण हो रहा है। सारस, स्वर्णचातक, भास और कारण्ड तथा कलहकारी हंसों से वह नदी सम्मानित है। वहाँ चंचल तरंगों में लोग चल रहे हैं, रमण कर रहे हैं और तैर रहे हैं तथा स्वच्छ कमलों की सगन्ध का स्वाद लेते हए भौंरे रुन-झन करते हए मँडरा रहे हैं। उसके स्वच्छ तटपर तप में संलीन तापसों के आश्रम मनोहर दिखाई दे रहे हैं, तथा शीतल जल के पवन से आश्वस्त होकर मृगों तथा अन्य वनचरों के समूह विचरण कर रहे हैं । उसके जल में जो मकर और हाथियों का युद्ध हो रहा है उसके कारण हाथियों द्वारा अपनी सूंडों से उछाले हुए जल से तटवर्ती वानर त्रस्त हो रहे हैं। तथा गिरनेवाले फुफकार के जल से मुख भर जाने के कारण चातकों के समूह प्रसन्न हो रहे हैं, उस नदी का तट गड्ढों की कीचड़ से युक्त गहरी खदानों में खेलते और क्रीड़ा करते हुए सूकरों से संकुलित है। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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