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________________ 110 अपभ्रंश भारती - 9-10 इन चीजों से जीव को भवसंसार में घूमना पड़ता है। परलोक में भी सुख नहीं है तथा इस लोक में अपयश की पताका फैलती है। स्त्री सुन्दर नहीं होती इसके रूप में यमनगरी ही आ गयी है। ___ इसके अतिरिक्त भी कुछ स्थलों पर राम-लक्ष्मण के लिए जैन धर्मानुसार बलदेव-वासुदेव विशेषणों का प्रयोग किया गया है, यथा(1) वासुएव - बलएव धणुद्धार। - 2. 21.1 (2) हरि - वलएव पढुक्किय तेत्तहँ । - 2. 21. 13 (3) तं विसुणेवि वलेण पजम्पिउ। -2. 23. 3 (4) वासुएव-वलएव महब्बल। -2. 23. १ (5) पुणु संचल्ल वे वि वलएव-वासुएव। -2. 25. 7 (6) किं वम्भाणु भाणु हरि हलहरु । -2. 25. 18 (7) जं चिण्हइँ वल-णारायण हुँ। -2. 27. 8 (8) तं वयणु सुणेप्पिणु अतुल-वलु 'सुणु' लक्खण पचविउ एव वलु। -2. 27. 9 (9) ओए भवट्ठम इस वासुएव वलएव। -2. 38. 7 सुंदरकाण्ड वलएवं सर-सन्धाणु किउ। -2. 43. 18 पैंतालीसवीं संधि में राम को आठवें नारायण के रूप में चित्रित किया गया है राम ही वह आठवें नारायण हैं जो रावण के लिए अष्टमी के चंद्र की तरह वक्र हैं । माया-. सुग्रीव का जिसने वध किया उसे ही आठवां नारायण कहा गया है। . जैनधर्म में अहिंसा का विशेष महत्व है। चौवनवीं संधि में अहिंसा धर्म के दस अंगों के बारे में बताया गया है - (1) जीव दया में तत्पर होना चाहिये। (2) मार्दव दिखाना चाहिये। (3) सरलचित्त होना चाहिये। (4) अत्यंत लाघव से जीना चाहिये। (5) तपश्चरण करना चाहिये। (6) संयम धर्म का पालन करना चाहिये। (7) किसी से याचना नहीं करनी चाहिये। (8) ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। (9) सत्यव्रत का पालन करना चाहिये। (10) मन में समस्त बातों का परित्याग करना चाहिये।
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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