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अपभ्रंश भारती
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9-10
अक्टूबर 1997, अक्टूबर 1998
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'पउमचरिउ' के अनूठे तत्वों का अप्रतिम संकलन
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- मंजु शुक्ल
'पउमचरिउ ' अपभ्रंश भाषा का एक बेजोड़ ग्रंथ है जिसमें महाकवि स्वयंभू ने अपनी काव्य प्रतिभा को निराले ढंग से अभिव्यक्त किया है। यूं तो इस ग्रंथ का महत्त्व कई दृष्टियों से है क्योंकि यह अपभ्रंश भाषा में रचित प्रथम रामाख्यानक कृति है जो संस्कृत और प्राकृत की साहित्यिक परम्परा को स्वयं में समेटे हुए है । परन्तु इसके अतिरिक्त भी इसमें कई ऐसे तत्त्व हैं जो नितांत मौलिक हैं और इस ढंग से अभिव्यक्त किये गये हैं कि उनकी सारगर्भिता मन को अन्दर तक छू जाती है और इन्हीं ऐसे अनूठे तत्त्वों से ही संपूर्ण कृति महत्तापूर्ण हो जाती है। 'पउमचरिउ ' में वर्णित नीतिवचन, संगीत, अर्थशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, उपमाएँ और भी न जाने क्या-क्या स्वयंभू ने इतनी गहनता से व्यक्त किया है कि उसकी विस्तृत व्याख्या करना एक विवशता-सी हो जाती है। ' पउमचरिउ' का जो सफर मुनिजनों, तीर्थंकरों की अभ्यर्थना से प्रारम्भ होता है वह आदिमध्य-अंत में ऐसी तमाम विशेषताओं को खुद में रचे-बसे हैं कि उन पर दृष्टि ठहर सी जाती है। ऐसी ही इन विशेषताओं को इस आलेख में उकेरने की कोशिश की है। 'पउमचरिउ' के संदर्भ में ऐसा संकलन मेरे संज्ञान में नहीं था इसलिये श्रमसाध्य ढंग से इसे अधिक से अधिक उभारने का प्रयास है यह लेख ।
'पउमचरिउ' में नीतिवचन
'पउमचरिउ ' में कई स्थल ऐसे हैं, जहाँ पर नीति सम्बन्धी दोहे वर्णित किये गये हैं, यद्यपि समय का अंतराल बहुत बढ़ गया
आठवीं शती से बीसवीं शती तक, तथापि इन नीतिवचनों