SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती 9-10 अक्टूबर 1997, अक्टूबर 1998 - 97 हिन्दी के औपम्य - विधान पर प्राकृत का प्रभाव ( विद्यापति के सन्दर्भ में ) — डॉ. प्रतिभा राजहंस अपभ्रंश के गर्भ से जन्म लेनेवाली भाषा हिन्दी पर अपभ्रंश के साथ-साथ प्राकृत का भी अत्यधिक प्रभाव है। प्राकृत के काव्य-रूप, कवि - परम्पराएँ, नख - शिख-वर्णन, ऋतुवर्णन, श्रृंगार के दोनों पक्षों के सांगोपांग वर्णन-चित्रण इत्यादि से प्रभावित हिन्दी - काव्य ने उसके भाव को ही नहीं अपनाया, बल्कि कई बार भावों के वर्णन-चित्रण में प्राकृत के औपम्य-विधान को भी हू-ब-हू उसी रूप में ग्रहण किया । हिन्दी - कवि विद्यापति ने प्राकृत के काव्य- साहित्य से नख - शिख वर्णन के क्रम में अनेक स्थलों पर भाव ग्रहण किए हैं। कहीं उनके भाव प्राकृत साहित्य से कुछ अलग दीख पड़ते हैं तो कहीं प्रायः वैसे -के-वैसे ही मिल जाते हैं प्राकृत- अंगं लावण्णपुण्णं सवणपरिसरे लोअणे फारतरे वच्छं थोरत्थणिल्लं तिवलिवलइअं मुटिठ्गेज्झं च माझं । चक्काआरो निअम्बो तरुणिमसमए किंणु अण्ण कज्जं पञ्चेहिं चेउ बाला मअणजअमहावेजअन्तीअ होन्ति ॥ अर्थात् युवावस्था में सुन्दरियों का शरीर लावण्य से भरपूर हो जाता है, आँखें भी आकर्षक और बड़ी लगने लगती हैं, वक्षस्थल खूब उभर आते हैं, कमर पतली हो जाती है तथा उस पर त्रिवलियाँ पड़ जाती हैं । नितम्ब भाग खूब सुडौल और गोल हो जाता है।
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy