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________________ 98 अपभ्रंश भारती - 9-10 विद्यापति (मैथिली) कामिनी कोने गढ़ली। रूप सरूप मोहि कहइते असम्भव, लोचन लागि रहली। गुरु नितम्ब भरे चलए न पारए, माझ खीनी मनि माइ। भाँगि जाइति मनसिजे धरि राखलि, त्रिबलि लता उरझाई। अर्थात् किसने ऐसी कामिनी की रचना की? यथार्थ रूप कहना मुझे असम्भव लगता है। वह तो आँखों में लगी रह गई। गुरु नितम्ब के भार से वह चल नहीं सकती है। मध्य भाग समाप्त प्रायः लगता है। टूट जाएगी, यह सोचकर कामदेव ने त्रिवली रूपी लता में उलझाकर बाँध रखा है। सुन्दरी युवती के सौन्दर्य-चित्रण में दोनों ही स्थलों पर भाव प्रायः एक से हैं। विद्यापति ने कमर टूट जाने की आशंका प्रकट करके और त्रिवली की लताओं से बाँधकर उसे अपनी कवित्व-कला से अनुपम सौन्दर्य प्रदान कर दिया है। इन पंक्तियों में कामदेव द्वारा प्रकट की गई सहृदयता के विषय में तो कहना ही क्या? त्रिवलियों पर लता का आरोप भी भावानुरूप सुन्दर बन पड़ा है। इसी प्रकार, अन्यत्र भी दोनों के भाव मिलते-जुलते दिखाई पड़ते हैं। प्राकृत-साहित्य की विश्वविजयिनी कामिनी विद्यापति के साहित्य में भी दीख पड़ती है। दोनों ही जगह समान जिज्ञासा बनी हुई है कि इस बाला की रचना किसने की - किसी एक देवता ने या कई ने मिलकर? किस वस्तु से की - चाँद, अमृत या संसार के समस्त सौन्दर्य-सार से? इस तरह की बाला की रचना संभव कैसे हुई ? विद्यापति के औपम्य-विधान पर प्राकृत-साहित्य का महत्त्वपूर्ण प्रभाव है। प्रस्तुत पद में प्राकृत कवि महेन्द्र सूरि को अपनी नायिका नम्मयासुन्दरी' (नर्मदासुन्दरी) की उपयुक्त उपमा के लिए विविध उपमानों में से कोई भी उपमान नायिका में विद्यमान गुणों के अनुरूप न मिला। इसी प्रकार, विद्यापति को भी नायक श्रीकृष्ण की उपमा के योग्य कोई उपमान नहीं मिल पा रहा है। द्रष्टव्य है - प्राकृत - घणचंद समं वयणं तीसे जई साहियो सुयणु तुज्झ। तो तक्कलंकपंको तम्मि सामारोविओ होई। संबुक्कसमं गीवं रेहातिगसंजय त्ति जइ मणिमो। वंकत्तणेण सा दूसिय त्ति मन्नइ जणो सव्वो।
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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