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अपभ्रंश भारती - 8
44. वलिय के वि णीसासु मुअन्ता ।
खणे खणे हा हा राम' भणन्ता ॥ 23.15.2 इस पंक्ति का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "कोई नि:श्वास छोड़ रहा था। कोई 'हाराम' कहता-कहता लौट रहा था।" प्रसंगानुरूप इसका स्पष्ट अर्थ होना चाहिए - कितने निःश्वास छोड़ते हुए और क्षण-क्षण 'हाराम हाराम' कहते हुए लौटे।
45. के वि महन्तें दुक्खे लइया ।
लोउ करेवि के वि पव्वइया ॥ 23.15.3 इसका उपलब्ध अर्थ है - "कोई घोर दुःख पाकर प्रव्रजित हो गये।" यह अनुवाद अधूरा हो गया है। इसका पूर्ण स्पष्ट अनुवाद होना चाहिए - कितने (लोग) भारी दुःखग्रस्त हो गये और कितनों ने प्रव्रज्याग्रहण कर ली।
अन्ततः मेरा यह निस्संकोच निवेदन है कि ऊपर मैंने अपने स्वाध्याय और अनुभव की सीमा में कुछ विनम्र टिप्पणियाँ की है, किन्तु, ज्ञान का क्षेत्र असीम है, जहाँ कोई लक्ष्मण-रेखा नहीं होती।
1. पउमचरिउ, महाकवि स्वयंभू, संपा-अनु. - देवेन्द्रकुमार जैन, प्र. - भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली।
ग्राम - रहुआ पो. - मुसहरी फॉर्म जि. - मुजफ्फरपुर, बिहार पिन - 843154