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34. णिसि - णिसियरिऍ आसि जं गिलियउ णाइँ पडीवउ जउ उग्गिलियउ ॥ 23.12.6
इसका उपलब्ध अनुवाद है - "रातरूपी निशाचरी ने जो सूरज को पहले निगल लिया था, उसने अब उसे उगल दिया।" यहाँ ' जउ ' पद विचारणीय है, जिसकी उपेक्षा हुई है। प्रसंगानुसार 'जउ' का अर्थ यहाँ 'जगत' होना चाहिए। इस तरह पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - निशारूपी निशाचरी ने जिसे (पहले) निगल लिया था, उस अप्रिय ( अरुचिकर) जगत् को मानो उसने (अब) उगल दिया ।
उग्गन्तउ
35. रेहड़ सूर - विम्वु णावइ सुकइ-कव्वु पह-वन्तउ ॥ 23.12.7
इसका हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है। इसका अनुवाद होना चाहिए सुअलंकृत काव्य की तरह मानो उदीयमान सूर्य-बिम्ब सुशोभित हो रहा है।' 36. हेसन्त- तुरङ्गम-वाहणेण
परियरिउ रामु णियसाहणेण ॥ 23.13.1
37. कारण्ड - डिम्भ - डुम्भिय-सरोह
अपभ्रंश भारती - 8
वर-कमल- करम्बिय - जलपओह ॥ 23.13.5
इसका अर्थ किया गया है "राम हँसते हुए घोड़ों की सवारी से सहित अपनी सेना से घिर गये।" यहाँ ' हेसन्त' का अर्थ प्रसंगानुसार 'हींसते हुए' (हिन्-हिन् शब्द करते हुए) होना चाहिए। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - हिन्-हिन् शब्दों से पूर्ण अपने अश्वारोही सैन्य से राम घिर गये ।
38. हंसावलि-पक्ख समुल्हसन्ति
कल्लोल - वोल - आवत्त दिन्ति ॥ 23.13.6
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इस पंक्ति का उपलब्ध अनुवाद है - "तरंगमाला गजशिशुओं से आन्दोलित हो रही थी । जलप्रवाह कमलों के समूह से भरा हुआ था । प्रसंगानुसार यहाँ 'कारण्ड' शब्द का अर्थ 'पक्षी विशेष' होना चाहिए‘गज' नहीं। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - (जहाँ) कारण्ड- शिशुओं से विदोलित तरंग - संघात तथा प्रशस्त कमलों से व्याप्त जलप्रवाह ।
'सुकवि के
39. ओहर - मयर - रउद्द सा सरि णयण कडक्खिय ।
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इसका पंक्ति का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "हंसमाला के पंख उसमें उल्लसित हो रहे थे। तरंगों के प्रहार से आवर्त पड़ रहे थे ।" यहाँ दूसरे चरण की अर्थ-व्यवस्था पूरी शिथिल हो गयी है। प्रसंगानुसार 'कल्लोल' का अर्थ 'तरंग', 'बोल' का 'व्यतिक्रम' और 'आवत्त' का
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'चक्राकार परिभ्रमण' होना चाहिए । यों ' पउमचरिउ' की शब्द सूची के अनुसार 'वोल' का अर्थ 'समूह' है । इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा ' (जहां ) हंससमूह पंखों को ऊपर उठाये कल्लोल - माला का चक्राकार परिभ्रमण कर रहा था।'
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दुत्तर- दुप्पइसार णं दुग्गइ दुप्पेक्खिय ॥ 23.13.9