SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती - 8 - 'साहम्मिय' का अर्थ है - विभिन्न माताओं से उत्पन्न अर्थात् सौतेले भाई और सामान्य अर्थ है साधर्मी (समानधर्मी) । इस प्रकार इन पंक्तियों का प्रासंगिक अर्थ होना चाहिए - 'महाबली राम और लक्ष्मण, जो परस्पर साधर्मी (सौतेले भाई), साधर्मियों के प्रति स्नेहभाव रखनेवाले तथा रणभार के निर्वाहक हैं, वे बिना वाहन, बिना साधन और बिना सैन्य के निकल पड़े। ' 30. जं पायार-वार- विष्फुरियउ पोत्थासित्थ- गन्थ - वित्थरियउ ॥ 23.9.10 इसका उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "वह मंदिर परकोटा और द्वारों से शोभित और पोथियों तथा ग्रन्थों से भरा था।" यहाँ द्वितीय चरण का अनुवाद शब्दार्थ के अनुरूप नहीं हुआ है। 'पोत्थासित्थ' पद का प्रासंगिक अर्थ - 'वस्त्र से लिपटे हुए' होना चाहिए। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा 'जो ( जिन-मंदिर) प्राकार और द्वारों से उद्भासित तथा वस्त्रावृत ग्रन्थों से विस्तारित था । ' 31. जय धम्म - महारह - वीढे ठिय जय सिद्धि-वरङ्गण-रण- पिय ॥ 23.10.6 71 इसका पंक्ति का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - " धर्मरूपी महारथ की पीठ पर स्थित आपकी जय हो । सिद्धिरूपी वधू के अत्यन्त प्रिय आपकी जय हो।" प्रस्तुत पंक्ति में 'रण्ण' शब्द विचारणीय है । लक्षणा से 'रण्ण' का अर्थ 'एकान्त' अथवा 'अत्यन्त' भी हो सकता है। किन्तु, यहाँ जिनेश्वर की वन्दना के क्रम में उनकी उपमा पूर्णतया आदित्य (सूर्य) से दी गयी है । अत: यहाँ 'रण्ण' का अर्थ रत्ना (आदित्य - भार्या) होना चाहिए। इस प्रकार पूरी पंक्ति का प्रासंगिक अर्थ होगा - धर्मरूपी महान् रथ पर आरूढ आपकी जय हो, सिद्धि-कामिनीरूपी रत्ना के प्रिय आपकी जय हो।" हुङ्कार-सार मेल्लन्तइँ गरुअ-पहारह उस उड्डन्तइँ ॥ 23.11.4 32. सर इसका हिन्दी अनुवाद किया गया है- "हुंकार करने में श्रेष्ठ वे कामोत्पादक शब्द कर रहे थे, गुरु प्रहार से वे उसे उड़ा रहे थे । यहाँ भी अनुवाद में शिथिलता हुई है। प्रसंगानुसार 'सर' का अर्थ 'स्मर' (काम), 'सार' का 'स्वर' और 'उरु' का 'जंघा' है। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होना चाहिए - 'वे कामजन्य हुंकार स्वर छोड़ रहे थे और भारी आघातों से जंघाओं को उड़ा रहे थे। 33. जे वि रमन्ता आसि लक्खण-रामहुं संकेवि । णावइ सुरयासत्त आवण थिय मुहु ढङ्केवि ॥ 23.11.9 प्रस्तुत घत्ता का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "सुरतासक्त रमण करती हुई जितनी भी आपणस्त्रियों थी, राम-लक्ष्मण की आशंका से मानो वे मुँह ढककर रह गई।" यहाँ अनुवाद में न शब्दार्थ पर दृष्टि रखी गयी है और न उनके अन्वय पर। इसका प्रासंगिक अर्थ होना चाहिए - 'जो भी (स्त्री-पुरुष) कामक्रीड़ा में अनुरक्त थे, वे लक्ष्मण और राम की आशंका से मुँह ढककर निश्चल हो गये, मानो, सुरतासक्त आपण ही निश्चल हो गया हो ।'
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy