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अपभ्रंश भारती
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'साहम्मिय' का अर्थ है - विभिन्न माताओं से उत्पन्न अर्थात् सौतेले भाई और सामान्य अर्थ है साधर्मी (समानधर्मी) । इस प्रकार इन पंक्तियों का प्रासंगिक अर्थ होना चाहिए - 'महाबली राम और लक्ष्मण, जो परस्पर साधर्मी (सौतेले भाई), साधर्मियों के प्रति स्नेहभाव रखनेवाले तथा रणभार के निर्वाहक हैं, वे बिना वाहन, बिना साधन और बिना सैन्य के निकल पड़े। '
30. जं पायार-वार- विष्फुरियउ
पोत्थासित्थ- गन्थ - वित्थरियउ ॥ 23.9.10
इसका उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "वह मंदिर परकोटा और द्वारों से शोभित और पोथियों तथा ग्रन्थों से भरा था।" यहाँ द्वितीय चरण का अनुवाद शब्दार्थ के अनुरूप नहीं हुआ है। 'पोत्थासित्थ' पद का प्रासंगिक अर्थ - 'वस्त्र से लिपटे हुए' होना चाहिए। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा 'जो ( जिन-मंदिर) प्राकार और द्वारों से उद्भासित तथा वस्त्रावृत ग्रन्थों से विस्तारित था । '
31. जय धम्म - महारह - वीढे ठिय
जय सिद्धि-वरङ्गण-रण- पिय ॥ 23.10.6
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इसका पंक्ति का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - " धर्मरूपी महारथ की पीठ पर स्थित आपकी जय हो । सिद्धिरूपी वधू के अत्यन्त प्रिय आपकी जय हो।" प्रस्तुत पंक्ति में 'रण्ण' शब्द विचारणीय है । लक्षणा से 'रण्ण' का अर्थ 'एकान्त' अथवा 'अत्यन्त' भी हो सकता है। किन्तु, यहाँ जिनेश्वर की वन्दना के क्रम में उनकी उपमा पूर्णतया आदित्य (सूर्य) से दी गयी है । अत: यहाँ 'रण्ण' का अर्थ रत्ना (आदित्य - भार्या) होना चाहिए। इस प्रकार पूरी पंक्ति का प्रासंगिक अर्थ होगा - धर्मरूपी महान् रथ पर आरूढ आपकी जय हो, सिद्धि-कामिनीरूपी रत्ना के प्रिय आपकी जय हो।"
हुङ्कार-सार मेल्लन्तइँ
गरुअ-पहारह उस उड्डन्तइँ ॥ 23.11.4
32. सर
इसका हिन्दी अनुवाद किया गया है- "हुंकार करने में श्रेष्ठ वे कामोत्पादक शब्द कर रहे थे, गुरु प्रहार से वे उसे उड़ा रहे थे । यहाँ भी अनुवाद में शिथिलता हुई है। प्रसंगानुसार 'सर' का अर्थ 'स्मर' (काम), 'सार' का 'स्वर' और 'उरु' का 'जंघा' है। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होना चाहिए - 'वे कामजन्य हुंकार स्वर छोड़ रहे थे और भारी आघातों से जंघाओं को उड़ा रहे थे।
33. जे वि रमन्ता आसि लक्खण-रामहुं संकेवि ।
णावइ सुरयासत्त आवण थिय मुहु ढङ्केवि ॥ 23.11.9
प्रस्तुत घत्ता का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "सुरतासक्त रमण करती हुई जितनी भी आपणस्त्रियों थी, राम-लक्ष्मण की आशंका से मानो वे मुँह ढककर रह गई।" यहाँ अनुवाद में न शब्दार्थ पर दृष्टि रखी गयी है और न उनके अन्वय पर। इसका प्रासंगिक अर्थ होना चाहिए - 'जो भी (स्त्री-पुरुष) कामक्रीड़ा में अनुरक्त थे, वे लक्ष्मण और राम की आशंका से मुँह ढककर निश्चल हो गये, मानो, सुरतासक्त आपण ही निश्चल हो गया हो ।'